रुद्रप्रयाग: एकादशी पर अलकनंदा-मंदाकिनी नदी के संगम स्थल पर देव निशानों और पांडवों के अस्त्र-शस्त्रों की पूजा-शुद्धिकरण के साथ ही भरदार क्षेत्र के तरवाड़ी गांव में पांडव लीला शुरू हो गई है. बताया जाता है कि स्वर्ग जाते समय पांडव अलकनंदा व मंदाकिनी नदी किनारे से होकर स्वर्गारोहिणी गए थे. जहां से पांडव गुजरे उन स्थानों पर विशेष रूप से पांडव लीला आयोजित होती है.
पांडवों के अस्त्र-शस्त्रों में बाणों की पूजा की परंपरा मुख्य है. ग्रामीणों के अनुसार स्वर्ग जाने से पहले भगवान कृष्ण के आदेश पर पांडव अपने अस्त्र-शस्त्र पहाड़ में छोड़कर मोक्ष के लिए स्वर्गारोहिणी की ओर चले गए थे. जिन स्थानों पर यह अस्त्र छोड़ गए थे, उन स्थानों पर विशेष तौर से पांडव नृत्य का आयोजन किया जाता है और इन्हीं अस्त्र-शस्त्रों के साथ पांडव नृत्य करते हैं.
पांडव नृत्य की एक अनूठी परंपरा
नृत्य के दौरान पांडवों के जन्म से लेकर मोक्ष तक का सजीव चित्रण किया जाता है. केदारघाटी के भरदार क्षेत्र में पांडव नृत्य की एक अनूठी परंपरा है. यहां हर साल एकादशी पर्व पर देव निशानों के गंगा स्नान के साथ पांडव नृत्य का आयोजन सदियों से चला आ रहा है. एकादशी का पर्व इसलिए शुभ माना गया है कि इस दिन भगवान नारायण और तुलसी विवाह संपन्न हुआ था.
स्कंद पुराण में पांडव काल का वर्णन
स्कंद पुराण के केदारखंड में पांडव काल का पूरा वर्णन मिलता है. इससे जहां एक ओर ग्रामीण अपनी अटूट आस्था के साथ संस्कृति को बचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं, वहीं दूसरी ओर भावी पीढ़ी भी इससे रूबरू करा रहे हैं. प्रत्येक गांवों में पांडव नृत्य के आयोजन की अलग-अलग परम्पराएं हैं. कहीं पांच तो कहीं दस साल बाद पांडव नृत्य का आयोजन होता है. लेकिन भरदार क्षेत्र के ग्राम पंचायत दरमोला एकमात्र ऐसा गांव है, जहां हर साल एकादशी पर्व पर देव निशानों के साथ मंदाकिनी व अलकनंदा के तट पर गंगा स्नान के साथ पांडव नृत्य शुरू करने परंपरा है.