(वरिष्ठ पत्रकार योगेश भट्ट की कलम से)
पूरी दुनिया जब बड़े बदलाव के दौर से गुजर रही है तो ऐसे में उत्तराखंड की तस्वीर भी बदल रही है। जिस पहाड़ से हर रोज औसतन 165 लोग पलायन कर रहे थे, आज हर दिन वहां हजारों लोगों की घर वापसी हो रही है। विडंबना देखिए, लौटने वालों को प्रवासी कहा जा रहा है और उनके लौटने को रिवर्स पलायन। जबकि घर गांवों को लौटने वाले ये लोग न तो प्रवासी हैं और न ही यह रिवर्स पलायन है। यह घर वापसी तो मजबूरी है, ठीक वही मजबूरी जो कभी उनके घर गांव छोड़ने की रही।
क्या खेती बन पाएगी स्वरोजगार का जरिया?
कल तक गांवों से निकलकर महानगरों की ओर जाती यह भीड़ समस्या थी तो आज यही लौटती भीड़ ‘चुनौती’ बन रही है। अपने घर गांवों को लौट रही इस भीड़ में पहाड़ अपने बंजर हो चुके खेतों के लिए ‘हल’ तलाश रहा है। माना जा रहा है कि कोरोनोकाल के बहाने ही सही, पहाड़ की जवानी पहाड़ के काम तो आएगी। यही दरकार भी है, पर सवाल यह है कि, कैसे ? क्या सरकार की मौजूदा योजनाओं और रीति-नीतियों से यह संभव है ?
काश ! ऐसा हो पाता, घर वापसी करने वाले बंजर खेतों की तस्वीर बदल पाते। रोजगार की तलाश में उन्हें फिर से महानगरों का रुख नहीं करना पड़ता। मगर जब राज्य सियासतदांओं की बदनीयती, कमजोर इच्छाशक्ति, सत्ता की भूख, सिस्टम की अदूरदर्शिता, सरकारी तंत्र के भ्रष्टाचार और आर्थिक तंगहाली से जूझ रहा हो तो यह सपना भी कैसे देखा जाए ?
जिस राज्य में 20 लाख 50 हजार परिवारों में छह लाख से अधिक यानी 30 फीसदी से ज्यादा परिवार पांच हजार रुपए प्रतिमाह से कम पर गुजारा करते हों, वहां तो यह एक सपने जैसा ही है। क्योंकि जिस राज्य में नाम मात्र खेती की जमीन हो और उसमें भी तीन चैथाई जोत एक हेक्टेयर से कम हो, वो भी गोल खाते में हो, एक चक में न हो, तो वहां खेती को ‘रोजगार’ का जरिया बनाना रेगिस्तान में कुआं खोदने जैसा है।
पलायन की मजबूरी क्या थी?
सच यह है कि पहाड़ में कृषि कर्म इतना ही सहज होता तो जो लोग आज अपने घर गांवों को लौट रहे हैं, वे पहाड़ से पलायन ही क्यों करते ? ऐसा भी तो नहीं है कि हमारी सरकारों ने बीते बीस वर्षों में कोई ऐसा चमत्कार कर दिया हो जिससे पहाड़ में खेती की राह आसान हो गयी हो। उल्टा पिछले कुछ सालों में तो जो अच्छे-खासे खेत सरसब्ज थे वो भी बंजर हो चले हैं, पलायन और तेजी से बढ़ा है ।
दरअसल पहाड़ में जिस पलायन को लेकर चिंता है वह स्वैच्छिक नहीं बल्कि मजबूरी का पलायन है। गरीबी और बेरोजगारी का पलायन है। राज्य में 57 फीसदी परिवार ऐसे हैं, जिनके सदस्य हर साल रोजगार के लिए दूसरे राज्यों में जाते हैं। बीते दस सालों में ही तकरीबन चार लाख लोगों ने अस्थायी और लगभग सवा लाख लोगों ने स्थायी रूप से पहाड़ से पलायन किया।
पलायन के आंकड़े बताते हैं कि तकरीबन 41 फीसदी पलायन गरीबी और 16 फीसदी पलायन बेरोजगारी का है। पलायन कर राज्य से बाहर जाने वालों का राज्य की अर्थव्यवस्था में बड़ा योगदान है। यही कारण है कि सरकार का जो आयोग पलायन पर चिंता कर रहा था, अब उसकी चिंता यह है कि बड़ी आबादी के अपने घर-गांव लौटने के चलते पहाड़ी जिलों की जीडीपी में गिरावट आ जाएगी।
गरीबी और बेरोजगारी का आखिर हल क्या है?
सरकारें जानती हैं कि गरीबी और बेरोजगारी का हल निकाले बिना पलायन रोकना संभव नहीं है, मगर सरकार गरीबी, बेरोजगारी और पहाड़, की परिस्थितियों को ध्यान में रखकर नीतियां बनाती ही नहीं। सरकारी विकास के माडल और नीतियों में पहाड़ तो हाशिए पर रहा है। अब देखिए, राज्य की प्रति व्यक्ति सालाना आय दो लाख के करीब पहुंच चुकी है, यह राष्ट्रीय औसत से ज्यादा जरूर है, मगर सच यह है कि राज्य में जबरदस्त आर्थिक असमानता है।
इस कदर आर्थिक असमानता क्यों ?
आर्थिक असमानता का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि राज्य के कुल 20 लाख 50 हजार परिवारों में से छह लाख से अधिक परिवार तो तंगहाली में जी रहे हैं। अकेले उत्तरकाशी जिले के 80 फीसदी परिवार ऐसे हैं जिनकी आय पांच हजार रुपये प्रति माह से भी कम है। टिहरी, अल्मोड़ा, चंपावत जिलों में ऐसे परिवारों की संख्या 70 फीसदी है तो चमोली में 60 और पिथौरागढ़ में 63 फीसदी परिवार पांच हजार रुपये प्रतिमाह से कम आमदनी वाले हैं। रुद्रप्रयाग जिले की स्थिति पर्यटन के कारण थोड़ा बेहतर जरूर कही जा सकती है, लेकिन वहां भी तकरीबन 54 फीसदी परिवार तंगहाल है।
दुखद यह है कि सरकारी योजनाओं ने इस असमानता को और बढ़ाने का काम किया। राज्य की अर्थव्यवस्था चालीस हजार करोड़ से बढ़कर ढाई लाख करोड़ पहुंच चुकी है, मगर राज्य में रोजगार के साधन नहीं बढ़ पाए। बेराजगारी की स्थिति यह है कि राज्य में तकरीबन 18 फीसदी युवा बेरोजगार हैं। राज्य के रोजगार कार्यालयों में ही पंजीकृत बेरोजगारों की संख्या आठ लाख के करीब है। सरकारी रोजगार की स्थिति यह है कि सालाना औसतन ढाई हजार से अधिक लोगों को सरकार रोजगार नहीं दे पाती। सरकारी पदों पर पहले तो भर्तियां ही नहीं खुलती, खुलती हैं तो भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाती हैं या चोर दरवाजे से कर दी जाती हैं।
रोजगार ही है पलायन की वजह भी और हल भी
कुल मिलाकर रोजगार पलायन का ‘कारण’ भी है और ‘हल’ भी। और, राज्य में रोजगार तभी संभव है जब कृषि, उद्योग और पर्यटन का विकास एवं विस्तार हो। हालिया व्यवहारिक पक्ष यह है कि शहरीकरण ने कृषि क्षेत्र में रोजगार की संभावनाएं खत्म कर दी हैं और उद्योग राज्य के सिर्फ तीन मैदानी जिलों तक सिमट कर रह गए हैं। रहा पर्यटन, तो दुर्भाग्य यह है कि राज्य में अभी तीर्थाटन और पर्यटन में ही अंतर स्पष्ट नहीं हो पाया है। पर्यटन और तीर्थाटन दोनों बिल्कुल अलग हैं, दोनों को जोड़ा तो जा सकता है मगर उनका घालमेल नहीं किया जा सकता, यह हम आज तक नहीं जान पाए हैं।
चलिए अब आते हैं असल मुददे पर, आज बड़ा मुददा है रोजगार। रोजगार सिर्फ उनके लिए ही नहीं जो करोनाकाल में वापस घरों को लौट रहे हैं, बल्कि रोजगार उनके लिए भी जो कि कोरानाकाल में राज्य के भीतर ही बेगार हो चुके हैं। लॉकडाउन के चलते राज्य को ही तकरीबन नौ हजार करोड़ से अधिक का नुकसान हो चुका है, बडी संख्या में लोग बेरोजगार हुए हैं।
सरकार के सामने दोहरी चुनौतियां है, लॉकडाउन के कारण अर्थव्यवस्था पटरी से उतर चुकी है तो बेरोजगारों की संख्या दोगुनी हो गयी है। सरकार स्वरोजगार की बात कर रही है मगर सच्चाई यह है कि जो लोग हिम्मत कर स्वरोजगार कर भी रहे हैं, वे भी सरकारी सिस्टम से तंग आकर विमुख हो रहे हैं।
अपवादस्वरूप शौकिया और सक्षम-संपन्न लोगों को छोड़ दें तो कृषि कार्य करने वाले 64 फीसदी लोग रोजगार के आभाव में कृषि से जुड़े हैं। इधर सरकार घर गांव की ओर वापसी करने वालों को एक अवसर के तौर पर ले रही है। उम्मीद की जा रही है कि वे बंजर जमीनों को आबाद करेंगे, खेती करेंगे, अनाज या सब्जी उगाएंगे, उद्यान लगाएंगे, स्वरोजगार करेंगे।
खेती की जमीन आखिर है कहां?
आनन-फानन में मुख्यमंत्री स्वरोजगार योजना लांच कर 15 करोड़ रुपये के बजट की व्यवस्था भी कर दी गयी है। अब सवाल यह है कि बिना होमवर्क के लांच की गयी यह योजना कितनी व्यावहारिक साबित होगी? दरअसल पहाड़ पर पहाड़ के लिए यह ‘पहाड़’ सी उम्मीद है। सरकार खेती की बात कर तो रही है मगर यक्ष प्रश्न यह है कि खेती की जमीन है कहां ?
मैदानी क्षेत्रों में कृषि भूमि को उद्योग, बिल्डर और जमीन के सौदागर लील गए हैं तो पहाड़ों में अधिकांश कृषि भूमि बंजर हो चुकी है। जहां थोड़ा बहुत खेती को बचाने की कोशिश हो भी रही है तो वहां बंदरों और जंगली सूअरों का आतंक है। राज्य गठन के वक्त राज्य की कुल 8 लाख 31 हजार 225 हेक्टेयर कृषि भूमि राज्य के 8 लाख 55 हजार 980 परिवारों के नाम थी।
मोटा आंकड़ा यह है कि पचास फीसदी से अधिक कृषि भूमि राज्य के मात्र दस फीसदी परिवारों के नाम है। लगभग तीन चौथाई जोत एक हेक्टेयर से कम की हैं, ऐसे में कोरोना काल में घर वापसी कर रहे युवाओं के पास पहले तो खेती करने के लिए पर्याप्त भूमि होगी ही नहीं। भूमि होगी भी तो उनके नाम नहीं होगी, और कहीं नाम हुआ भी तो खेत बिखरे हुए होंगे।
कोई खेती करे भी तो कहां, चारों ओर बिखरे हुए खेतों पर ? कहना आसान है लेकिन यह व्यहारिक तब तक नहीं हो सकता, जब तक कि पहाड़ पर खेती को रोजगार या व्यवसाय के तौर पर लेने वाले का निजी स्वामित्व नहीं होता। यह तब तक संभव नहीं है जब तक कि पहाड़ पर अनिवार्य चकबंदी नहीं होती। खोट दरअसल सरकार की नीतियों में है। गरीबी और बेरोजगारी को ध्यान में रखते हुए नीतियां बनायी गयी होती तो सरकार पहाड़ पर जमीनों का बंदोबस्त करती, अनिवार्य चकबंदी कराती, बंजर जमीन को आबाद कराने के लिए कड़े फैसले लेती, खेती को जंगली जानवरों से बचाने के लिए व्यावहारिक निर्णय लेती।
पहाड़ के लिए क्या है मॉडल?
सरकार खेती, औद्यानिकी और स्वरोजगार की बात कर रही है, अच्छा है, मगर सवाल यह है कि माडल क्या है, योजना क्या है ? सरकार तो क्लस्टर फार्मिंग की बात कर रही है, जमीनों को तीस साल के लिए लीज पर देने की पालिसी बनाकर कांट्रेक्ट फार्मिंग करने को कह रही है। सवाल यह है कि सरकार की इस तरह की नीतियां क्या एक गरीब बेराजगार के लिए व्यवहारिक हैं ? इन नीतियों में तो खास-विशेष के हित साफ नजर आते हैं।
वास्तविकता यह है कि परिस्थतियां आसान नहीं हैं। घर वापसी कर रहे युवाओं के साथ कोराना भी पहाड़ चढ़ता जा रहा है। सरकार के पास बहुत लंबे समय तक न तो संक्रमण से लड़ने के संसाधन हैं और न ही बढ़ती बेरोजगारी को नियंत्रित करने की कोई योजना। सरकार वास्तव में कितनी तैयार है वह इससे समझा जा सकता है कि अर्थव्यवस्था में सुधार के लिए प्लान तैयार करने का जिम्मा पूर्व मुख्यसचिव इंदु कुमार पाण्डेय को सौंपा गया है। दूसरी ओर कृषि, बागवनी और पशुपालन में सुधार के लिए काबीना मंत्री सुबोध उनियाल की अध्यक्षता में भी एक उप-समिति गठित की गयी है।
सरकार को चाहिए कि फिलहाल अल्पकालिक योजनाओं पर फोकस करे, ताकि घर-गांव को वापसी करने वालों में भरोसा पैदा हो। बंजर खेतों को मनरेगा से जोड़े, ठेकेदारी पर अंकुश लगाए। सरकार कोरोना काल को वाकई अवसर के तौर पर ले रही है तो यह भी जरूरी है कि गांव के गरीब और बेरोजगार लोगों को केंद्र में रखकर विकास का नया माडल तैयार किया जाए।