(वरिष्ठ पत्रकार शीशपाल गुसाईं की कलम से)
-1861 तक पर्वतीय क्षेत्र में लोग शराब नहीं पीते थे।
1861 में कुमाऊँ के सीनियर कमिश्नर गाइलस ने आबकारी प्रशासन को दी गई रिपोर्ट में लिखा था कि, पर्वतीय लोग शराब के व्यसन से मुक्त हैं। यानी तब न कच्ची शराब थीं न पक्की। उत्तराखंड में 19 50 तक शराब का प्रचनल बहुत नहीं था। 1950 से यहां टिंचरी और कच्ची शराब का प्रचलन के रिकॉर्ड मिलते हैं। इतिहास में 1960 को पौड़ी गढ़वाल के थलीसैंण में दीपा देवी नौटियाल का नाम टिंचरी माई पड़ा। ये कहानी रोचक है।
हुआ ऐसा कि गांव में आंगन में आधा दर्जन लोग टिंचरी पी रहे थे, उसके सामने श्री मित्तल की टिंचरी की दुकान थीं। वहां कुछ लोग टिंचरी पीकर आपस में अश्लील हरकत कर रहे थे। जिसका दीपा देवी ने बहुत विरोध किया। वह पुरुष प्रधान समाज की इस आदत से ऊब चुकी थीं। उसने दुकान में अपने को कैद किया, दरवाज़ा बंद किया और मिट्टी के तेल से आग लगाने लगीं। टिंचरी पी रहे लोगों को मालूम चला तो वह भाग खड़े हुए। दुकान जल कर राख हो गई।
इस घटना से काफी लोगों ने दारू छोड़ दी। दीपा देवी टिंचरी माई बन गई। एक घटना और भी टिंचरी माई से जुड़ा है पहाड़ पर आयुर्वेदिक दवा के रूप में टिंचरी बेची जाती थीं।
इस तरह की एक दुकान पर दीपा देवी ने आग लगा दी।
टिंचरी माई का जन्म 1917 में थलीसैंण ब्लॉक के मंजुर गांव मेंराम दत्त नोटियाल के घर हुआ। तथा ससुराल पोखड़ा ब्लॉक गवाड़ी गांव में था। उन्होंने अपने पति श्री गणेश राम को सेकेड वर्ल्ड वार में खोया। तभी से वह उग्र थीं। उनका देहांत 19 जून 1992 को हुआ।
मुझे उच्च शिक्षा मंत्री धन सिंह रावत ने बताया कि, मैंने टिंचरी माई का स्मारक बनाया है। उन्होंने लोगों को जागृत किया। मुझे वह स्मारक वहां देखने जाना है।
1950 के बाद गढ़वाल और कुमाऊ में कच्ची, टिंचरी पीने के सुबूत मिलते हैं। श्रीनगर, कीर्ति नगर, पौड़ी में महिलाओं ने इसका जबरदस्त विरोध किया था। महिलाएं दरांती लेकर सड़को पर आ गई थी। उनका आंदोलन फेल करने के लिए उन्हें टिहरी, सहारनपुर की जेल में डाला गया। उनकी संख्या 80 थीं। जिसमे 30 महिलाएं थीं।
कुमाऊँ में गरूड़ , अल्मोड़ा में आंदोलन में 50 से अधिक लोग जेल गए। जिसमें 15 महिलाएं थीं।
घनश्याम सैलानी जी ने की गीत शराब के विरोध में गए । फिर वह गीत प्रसिद्ध हुए। 70 में तक घनश्याम सैलानी , जीत जड़धारी, अन्य सर्वोदयी दारू के खिलाफ गाँव गाँव जाते थे। लोग जमा होते थे गीतों से जागरूक करते थे। इस शराबबंदी आंदोलन में राजमाता कमलेंदुमति शाह, श्री वीरेंद्र दत्त सकलानी, कैप्टन शूरवीर सिंह पंवार, सरदार प्रेम सिंह , महावीर प्रसाद गैरोला, सुरेन्द्र भट्ट, विधासगर नोटियाल , बच्ची राम कौंसवाल, शामिल थे।
इस आंदोलन का असर यह रहा कि लखनऊ हिल गया।
सरकार ने दारू पर प्रतिबंधित कर दी। यह प्रतिबंध 6 साल चला। फिर अंग्रेजी शराब की दुकाने अलॉट होने लगी।
1970 से पहले भी शराब की दुकानें थीं। यह दुकाने गरीब दास की होती थी। जो पक्की नहीं पी सकते थे। वह टिंचरी कच्ची पीते थे। इसी के प्रकोप से सर्वोदयी आंदोलन हुआ। इसका आंदोलन का असर पूरे पहाड़ पर रहा। टिहरी रियायत काल में भी शराब की भट्टी और दुकानों का इतिहास मिलता है। बाकायदा इसकी परमिट होता था। सीमित जगह पर इसकी दुकानें थीं। चार आना, तीन आना में एक ठर्रा मिल जाता था। रियासत का यह राजस्व का जरिया नहीं थीं।
गढ़वाल छेत्र में टिंचरी का प्रकोप 60 के दरमियान बहुत अधिक हुआ। टिंचरी मतलब गुड़ की कच्ची शराब। जो लोग गरीब दास का देशी, अंग्रेजी का नहीं पी सकते थे। वह यह पीते थे। देखा देखी यह बनाये जाने लगी। जौ अनाज की भी बनाई गई। इससे कई परिवार उजड़ गए। पौड़ी में टिंचरी माई, टिहरी में सर्वोदयी ने इसकी काफी हद तक कमर तोड़ दी थीं। इस दौर में कुमाऊँ में भांग का प्रचनल बढ़ गया। इसके सुट्टे, पकौडी का भी दौर आया।
इमरजेंसी के बाद यह पहला दौर आया जब डेढ़ माह तक शराब की अंग्रेजी, देशी की दुकानें इतने लंबे समय तक बंद रही। फिर खुली तब भारी भीड़ हुई थीं। 4 मई 2020 की तारीख के इतिहास में इसलिए शराब के इतिहास की पुनरावृत्ति हो गई।