‘सुदामा’ के दर्द से अनजान संस्कृत का ‘सारथी’ !

(वरिष्ठ पत्रकार योगेश भट्ट की कलम से)

कोरोना के शोर में पिछले दिनों शिक्षा जगत से जुड़ी एक बड़ी खबर सुर्खियों में नहीं आ पायी थी। खबर थी संस्कृत के तीन विश्वविद्यालयों को केंद्रीय विश्वविद्यालय का दर्जा दिये जाने की। संस्कृत के जिन विश्वविद्यालयों को यह दर्जा मिला उनमें राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान दिल्ली, लाल बहादुर शास्त्री विद्यापीठ दिल्ली और राष्टीय संस्कृत विद्यापीठ तिरूपति शामिल हैं। इसके लिए केंद्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय विधेयक को संसद के दोनो सदनों से मंजूरी के बाद राष्टपति की मंजूरी भी मिल चुकी है। संस्कृत के इन विश्वविद्यालयों को केंद्रीय विश्वविद्यालयों का दर्जा दिया जाना देश में संस्कृत के नए युग की शुरूआत जैसा है। यूं भी कहा जा सकता है कि संस्कृत की पताका लहाराने के लिए ‘विजय रथ’ तैयार किया जा रहा है।

यह फैसला इसलिए भी अहम है क्योंकि अभी तक देश में संस्कृत विश्वविद्यालयों की स्थिति दोयम दर्जे की रही है। निसंदेह केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री रमेश पोखरियाल निशंक को इसका श्रेय जाता है। संस्कृत की पताका लहाराने के लिए जो विजय रथ तैयार किया गया है निशंक उसके ‘सारथी’ हैं। मगर सवाल यह है कि क्या सिर्फ केंद्रीय विश्वविद्यालय का दर्जा दिये जाने भर से संस्कृत वो प्रतिष्ठा हासिल कर पाएगी, जिसकी की वह असल हकदार है ।

दरअसल संस्कृत को लेकर चिंता तो निरंतर होती रही है, मगर दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि इसके बावजूद संस्कृत हाशिए पर ही रही। सच यह है कि भारत से ज्यादा अच्छी स्थिति तो संस्कृत की विदेशों में है। यहां तो आम धारणा यह है कि यह केवल पूजा-पाठ और मंत्रों की भाषा है, जबकि सच्चाई यह है कि संस्कृत अनेक भाषाओं की जननी है। यह उस प्राचीन ज्ञान की संवाहक है जिसमें ज्योतिष, वेद, वेदांत, न्याय, दर्शन, व्याकरण, साहित्य इत्यादि का अध्ययन होता है। यदि मानें तो संस्कृत एक जीवन पद्वति है जिसकी अहमियत का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि देश के अनेक संस्कृत संस्थानों, विद्यालयों, महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में आज भी तकरीबन पांच करोड़ विद्यार्थीं संस्कृत का अध्ययन कर रहे हैं।

देश में राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान, श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विद्यापीठ और राष्ट्रीय संस्कृत विद्यापीठ तिरुपति के अलावा संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय वाराणसी, श्री शंकराचार्य संस्कृत विश्वविद्यालय इत्यादि अनेक विश्वविद्यालय हैं ,जो संस्कृत के अध्ययन-अध्यापन और शोध कार्य कर रहे हैं। विदेश में भी दर्जनों विश्वविद्यालयों में संस्कृत पढ़ाई जा रही है और उस पर शोध हो रहे हैं।

आश्चर्य यह है कि इस सबके बावजूद संस्कृत सीमित होती चली जा रही है। अपने यहां ही बीते सालों में नयी पीढ़ी में विदेशी भाषाओं को पढ़ने का क्रेज तो बढ़ा लेकिन संस्कृत कोई ‘आकर्षण’ नहीं बना पायी। कारण यह है कि जिन कंधों पर संस्कृत के रथ को आगे बढ़ाने का भार है उनकी स्थिति ‘सुदामा’ के जैसी है।

कमी कहीं न कहीं व्यवस्था की रही है। विदेशी भाषाओं की ओर आकर्षित करने के लिए सरकार और शिक्षण संस्थानों ने जतन भी किए और हर तरह के जरूरी संसाधन भी जुटाए, जबकि संस्कृत को लेकर उदासीनता पसरी रही। नयी पीढ़ी में संस्कृत को लेकर आकर्षण पैदा ही नहीं किया गया, नतीजा संस्कृत दरिद्रता का प्रतीक बनी हुई है।

संभवतः यह पहला मौका है जब केंद्र सरकार संस्कृत के संस्थानों के प्रति संवेदनशील हुई है । केंद्रीय मानव संसाधन मंत्रालय ने हाल ही में संस्कृत के तीन विश्वविद्यालयों को केंद्रीय विश्वविद्यालय का दर्जा संभवतः इसी मंशा से दिया है कि इन संस्थानों में शिक्षण की गुणवत्ता बढ़े, उनके ढांचे और स्तर में बदलाव आए। मानव संसाधान विकास मंत्री रमेश पोखरियाल निशंक की सक्रियता के चलते यह संभव तो हो गया है, मगर इसके बावजूद संस्कृत दर्जा उठेगा इस पर बड़ा संशय है। केंद्रीय विश्वविद्यालयों का जो स्वरूप अभी सामने आया है उसमें वहां कार्यरत शिक्षकों की स्थिति का कुछ पता नहीं है।

पता नहीं सरकार ने कितनी तैयारी के साथ इन संस्थानों को केंद्रीय विश्वविद्यालय बनाने का फैसला लिया है, मगर इसका एक स्याह पक्ष यह है कि इन संस्थानों में अनेक खामियां हैं। मसलन संस्थान में अध्यापन कार्य करने वालों का भविष्य ही सुरक्षित नहीं है, संस्थान में कुशल कर्मियों का आभाव है। इन विश्वविद्यालयों में स्नातकोत्तर स्तर तक संस्कृत के विषयों की पढ़ाई होती है, जबकि ग्रेजुएशन स्तर तक हिंदी, अंग्रेजी, इतिहास, राजनीतिशास्त्र, कंप्यूटर इत्यादि जैसे आधुनिक विषय हैं। सच्चाई यह है कि विश्वविद्यालयों में संस्कृत के अलावा अन्य विषयों के शिक्षक ही नहीं हैं। यहां शिक्षण व्यवस्था सालों साल से ठेके पर चल रही है।

राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान जो अब केंद्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय नाम से जाना जाएगा, की ही बात करें तो यहां लगभग पचास फीसदी अध्यापक ठेका प्रथा पर हैं। दिलचस्प यह है कि इनमें भी दो श्रेणियां हैं गेस्ट और कांट्रैक्ट। कांट्रैक्ट वालों को 60 हजार एकमुश्त मिलते हैं और गेस्ट टीचर को 40 हजार रुपये महीना। साल में मई और जून का महीना इन्हें बिना वेतन के गुजारना पड़ता है। दुखद यह है कि यह पूछने वाला कोई नहीं है कि जब गेस्ट और कांट्रैक्ट से एक ही जैसा शिक्षण कार्य लिया जाता है तो अस्थायी प्राध्यापकों की दो श्रेणियां क्यों !
गेस्ट टीचरों की हालत तो यह है कि नियमित नियुक्तियों की प्रक्रिया में उनका शिक्षण अनुभव किसी भी रूप में गिना नहीं जाता। वे पीएचडी गाइड भी नहीं बन सकते।

उच्च शिक्षा में आमतौर पर आठ साल तक असिस्टेंट प्रोफेसर के रूप में पढ़ाने के बाद प्राध्यापक एसोसिएट प्रोफेसर बन जाता है और दस साल टीचिंग के बाद प्राध्यापक प्रोफेसर के योग्य हो जाता है, परंतु यहां 15 से 20 साल बीतने के बाद भी अनेक ठेका प्राध्यापकों को यह सौभाग्य हासिल नहीं होता। अकेले संस्कृत संस्थान में ही गेस्ट और कांट्रैक्ट टीचरों की संख्या दो सौ के लगभग है ।इन विश्वविद्यालयों में सेमिनारों का आयोजन हो या बच्चों की राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में भागीदारी, सभी में 90 प्रतिशत भागीदारी इन अस्थायी अध्यापकों की ही होती है।

इन ठेके के प्रोफेसरों के साथ एक विडम्बना यह है कि 20 प्रतिशत लोग 48 वर्ष की उम्र पार कर चुके हैं जबकि 40 फीसदी अध्यापक 42 साल पार कर चुके हैं। यानी ये लोग जिंदगी के ऐसे पड़ाव पर हैं कि वे न तो कोई नयी शुरूआत कर सकते हैं और न पीछे लौट सकते हैं। कमजोर आर्थिक स्थिति और नौकरी की अनिश्चितता के चलते वे बच्चों को भी महंगी शिक्षा नहीं दिला सकते हैं।

कल्पना कीजिये कि ऐसी अनिश्चितता, अस्थिरता और असुरक्षा की मानोस्थिति में एक शिक्षक क्या गुणवत्ता देगा ? इस साल तो इन विश्वविद्यालयों के गेस्ट और कांट्रैक्ट टीचरों पर कोरोना की मार भी पड़ने जा रही है। इस साल तो उन्हें तीन महीने तक बिना वेतन के रहना पड़ सकता है। लाॅकडाउन के चलते तय किया जा रहा है कि छात्रों को सीधे जुलाई में ही काॅलेजों और विश्वविद्यालयों में बुलाकर परीक्षाएं करायी जाएं और परीक्षा परिणाम आने के बाद एक सितंबर से शिक्षा सत्र आरंभ किया जाए। एसे में ठेके पर काम कर रहे शिक्षकों के सामने रोजी का संकट भी तय है।

फिलवक्त ऐसा लगता है कि मानव संसाधन विकास मंत्रालय तीन संस्कृत विश्वविद्यालयों को केंद्रीय विश्वविद्यालय बनाते वक्त संभवतः संस्कृत संस्थानों से जुड़े इस व्यवहारिक पक्ष को नजरअंदाज कर गया। सवाल उठ रहा है कि क्या सरकार को केंद्रीय विश्वविद्यालय बनाते समय यहां शिक्षण कार्य करने वालोें की दीन दशा का आकलन कर उसका समाधान नहीं करना चाहिए था। यह माना जा रहा है कि जब तक संस्कृत संस्थानों में कार्यरत अध्यापक कर्मचारियों का भविष्य सुरक्षित नहीं किया जाता तब तक संस्कृत को उसकी प्रतिष्ठा दिलाने का लक्ष्य हासिल नहीं किया जा सकता।

बहरहाल संस्कृत को उसके मुकाम तक पहुंचाना अभी भी एक बड़ी चुनौती है। संस्कृत संस्थानों और विश्वविद्यालयों में कार्य करने वाले ‘सुदामा शिक्षक’ मानव संसाधन विकास मंत्री निशंक से बड़ी उम्मीदें लगाए बैठे हैं। उम्मीद की जानी चाहिए कि संस्कृत के सारथी बने निशंक संस्कृत संस्थानों में वर्षों से पसीना बहा रहे सुदामा के दर्द को महसूस करेंगे, उसकी दवा करेंगे।

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