सिर्फ उमेश कुमार के खिलाफ ही क्यों लिखते हैं उत्तराखंड के पत्रकार?

(नेटवर्क 10 संवाददाता ): शोसल मीडिया में इन दिनों स्वयंभू पत्रकार कहलाने वाले और उत्तराखंड के मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र सिंह रावत के खिलाफ स्टिंग की आपराधिक साजिश रचने के आरोपी उमेश कुमार के खिलाफ उत्तराखंड के पत्रकारों ने मोर्चा खोल रखा है। जैसा कि वरिष्ठ पत्रकार डॉ अजय ढौंडियाल ने हाल में लिखा भी है। ऐसा पहली बार नहीं हुआ है जब उत्तराखंड के नेताओं और अफसरों के स्टिंग कर अपने जाल में फंसा कर उतराखंड के संसाधनों को अपने लिए उपयोग करने के कुत्सित प्रयासों पर उत्तराखंड के पत्रकारों ने लिखा हो। इसकी चर्चा आगे करेंगे बहरहाल सबसे बड़ा सवाल ये है कि क्या उमेश कुमार के कारनामों से उत्तराखंड की जनता को आगाह करने का जो अभियान इन दिनों शोसन मीडिया में चल रहा है वह क्या सरकारी विज्ञापन के लिए किया जा रहा है? क्या जो लोग उमेश कुमार के प्रोपगैंडा को जनता के सामने ला रहे हैं वह सरकार के पक्षधर हैं इसलिए लिख रहे हैं?

इन सवालों का जवाब डंके की चोट पर है.. नहीं। दरअसल उत्तराखंड में सरकार की जरुरी आलोचना करने वाले और व्यवस्था के खिलाफ लिखने वाले पत्रकारों और सामाजिक कार्यकर्ताओं की कमी नहीं है। वो लोग जिन तथ्यों और तर्कों के साथ लिखते हैं उनकी तो छाया के बराबर भी उमेश कुमार कभी नहीं पहुंच सकते। क्योंकि उत्तराखंड के के ये दिग्गज पत्रकार पत्रकारिता करते हैं न कि सत्ता के गलियारों तक अपनी पहुंच बनाकर पत्रकारिता की आड़ में किसी मुख्यमंत्री या मंत्री का स्टिंग कर उत्तराखंड को लूटने की साजश करते हैं। हो सकता है कि उनके लेख या पोस्ट उमेश कुमार जितने वायरल न होते हों क्योंकि उनके पास अरबों रुपये का साम्राज्य नहीं है जिसके दम पर वह इस तरह का प्रोपगैंडा कर सकें। लेकिन उत्तराखंड के जागरुक लोग उनका नाम जरुर जानते हैं, उनको पहचानते हैं और सत्ता या सरकार की उनकी तार्किक आलोचना की सराहना भी करते हैं।

रिष्ठ पत्रकार जय सिंह रावत, कॉमरेड इंद्रेश मैखुरी , गुणानंद जखमोला , योगेश भट्ट, चारु तिवारी, प्रदीप सती और 600 करोड़ रुपयों का भारी भरकम छात्रवृत्ति घोटाला अपने दम पर उजागर करने वाले चंद्रशेखर करगेती जैसे कई नाम हैं जो अक्सर सत्ता की नीतियों की आलोचना करते हैं। इस आलोचना के पीछे उनके पास ठोस तर्क, तथ्य और आधार होता है। क्या इनके खिलाफ आज तक कोई अभियान शोसल मीडिया में चलाया गया? क्या किसी पोर्टल में इनके खिलाफ कोई खबर छपी है आज तक? बिल्कुल भी नहीं, छप ही नहीं सकती क्योंकि उत्तराखंड का प्रबुद्ध, ईमानदार और सरल जनमानस पत्रकार और दलाल ब्लैकमेलर में फर्क करना जानता है।

यदि उत्तराखंड के सैकड़ों करोड़ के घोटाले उजागर करने वाले पत्रकार और एक्टिविस्ट भी सरकारों को ब्लैकमेल कर रुपये कमाने वाले होते तो उत्तराखंड में षडयंत्रकारियों की पूरी जमात खड़ी होती। पहाड़ के पत्रकारों के पास भी देहरादून के सबसे महंगे इलाके में फार्महाउस होता, कोठियां होती, स्टोन क्रेशर होते, सिने स्टारों की तरह ऐश से रहते, अपने चैनल खोलते और तो और आने-जाने के लिए प्राइवेट हवाई जहाज का इस्तेमाल करते। इनके पास क्यों नहीं आया यह सब? इसलिए कि इन्होने कलम को ब्लैकमेल करने का जरिया नहीं बनाया। तो क्या एक ऐसे बाहरी व्यक्ति जिसका भांडा फूटने तक उत्तराखंड से सिर्फ जमकर सही-गलत तरीकों से कमाई तक का संबंध रहा हो, का विरोध करना, उत्तराखंडियों को उसके मंसूबों के प्रति आगाह करना गलत है? यदि यह गलत है तो हम ये गलती बार-बार करेंगे।

जो शख्स खुल कर अपने अपराधों और कुकृत्यों पर दर्ज मामलों को खुद शान से कहता हो उसका मतलब क्या होता है? इसका मतलब साफ है कि वो खुद को सबसे बड़ा गुंडा कहकर सबको ललकार रहा है। अरे भई, जिस शख्स पर इतने आपराधिक मामले दर्ज हैं तो क्या ये उसके भले कामों की वजह से दर्ज हैं? जिसके खिलाफ लुकआउट नोटिस जारी हुआ और जिसको पुलिस ने वांटेड घोषित कर ईनाम घोषित किया, वो कितना बड़ा अपराधी होगा। ऐसे मामले तो किसी और पत्रकार पर दर्ज नहीं हुए जबकि ऐसे सैकड़ों पत्रकार हैं जो सरकारों और व्यवस्थाओं के खिलाफ खुलकर लिखते हैं और लिखते आये हैं। जो खुद को इतना बड़ा अपराधी शान से बता रहा हो क्या वह अब देव भूमि का रहनुमा बनेगा? क्या देवभूमि में अपनी लड़ाई लड़ने के लिए अपनी चुनी हुई सरकार की आलोचना करने के लिए अब उत्तराखंडियों को एक बाहरी और षडयंत्रकारी की जरुरत पड़ेगी? बिलकुल नहीं ।

हमारे पास योग्य पत्रकारों और सत्ता की आंख में आंख डालकर बात करने वाले क्रांतिकारियों की कोई कमी नहीं है। कल तक सत्ता की दलाली करने वाले, अरबों का साम्राज्य बनाने वाले और जब मुख्यमंत्री का स्टिंग करने में नाकामयाब रहे, या यूं कहें कि उत्तराखंड को लूटने के मंसूबों में नाकामयाब रहे तो दौलत के दम पर भले मानुष का चोगा पहनकर उत्तराखंड का रहनुमा बनने लगे! इस कुत्सित कोशिस का उत्तराखंड में विरोध होना ही चाहिए। रही बात विज्ञापनों की तो क्या विज्ञापन यही सरकार दे रही है? सभी सरकारें देती हैं विज्ञापन, अगर सरकार को विज्ञापन देकर ही खबरें लिखवानी होती तो बाकी तामाम पत्रकारों के खिलाफ भी लिखवाती जो उसकी आलोचना करते हैं। और ये खबरें लिखने वाले भी अरबोंपति होते। क्यों साधारण जीवन जी रहे होते। उमेश कुमार खुद भी बताएं उनके पुराने चैनल को उत्तराखंड सरकार ने कितने के विज्ञापन जारी किए? वो विज्ञापन क्या उमेश कुमार को दलाली करने के लिए मिले थे? क्या तब वे खुद पेड मीडिया थे?

 

 

(डंकाराम से साभार)

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