वीआईपी संस्कृति से क्यों नहीं छूटता उत्तराखंड का पीछा?

(रिपोर्ट : शिवप्रसाद जोशी)   :  पूर्व मुख्यमंत्रियों को आवास जैसे अनेक लाभ मुहैया कराने के उत्तराखंड सरकार के कानून को असंवैधानिक बताते हुए नैनीताल हाईकोर्ट ने बकाया वसूलने का आदेश दिया है. लेकिन समस्या एक राज्य की नहीं है. सत्ता की चाहत और वीआईपी-कल्चर हर जगह हावी है.

नैनीताल हाईकोर्ट ने देहरादून की एक स्वयंसेवी संस्था रूलेक की पिछले साल की याचिका पर अपने तब के आदेश में पूर्व मुख्यमंत्रियों को छह महीने के भीतर सरकारी बंगलों का बाजार दर पर किराया जमा कराने को कहा था. लेकिन राज्य सरकार ने पूर्व मुख्यमंत्रियों के बचाव का रास्ता निकालते हुए अध्यादेश को मंजूरी दिलवा दी. इस तरह उत्तराखंड पूर्व मुख्यमंत्री सुविधा (आवासीय और अन्य सुविधाएं) अध्यादेश 2019 अस्तित्व में आ गया.

इससे पूर्व मुख्यमंत्रियों रमेश पोखरियाल निशंक, बीसी खंडूरी, भगत सिंह कोश्यारी, विजय बहुगुणा और दिवंगत एनडी तिवारी को राहत मिल गई, जिन्हें राज्य सरकार का करीब तीन करोड़ रुपये का बकाया भुगतान करने का निर्देश हाईकोर्ट ने दिया था. वैसे ये अध्यादेश राज्य गठन की तारीख 9 नवंबर 2000 से अस्तित्व में मानते हुए इसकी मियाद 31 मार्च 2019 तक रखी गई थी और कहा गया था कि इस तारीख के बाद कोई पूर्व मुख्यमंत्री सरकारी आवास या अन्य सुविधाओं के हकदार नहीं होंगे.

इस साल जनवरी में रूलेन ने अध्यादेश को चुनौती देते हुए फिर याचिका डाली, जिस पर फैसला सुनाते हुए हाईकोर्ट ने अध्यादेश को संवैधानिक परिप्रेक्ष्य में असंगत और अवैध बताते हुए रद्द करने का आदेश दिया है.

नैनीताल हाईकोर्ट ने कानून को संविधान में दर्ज समानता के अधिकार के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन बताया था. इस निर्णय के पीछे सुप्रीम कोर्ट का 2018 के उस ऐतिहासिक फैसले की नजीर भी थी जिसमें उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्रियों को सरकारी बंगले खाली करने का आदेश दिया गया था. सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि पूर्व मुख्यमंत्री भी आम व्यक्ति हैं न कि “विशेष दर्जे वाला” नागरिक, जो जनता के टैक्स पर जिंदगी भर के लिए गाड़ी, ईंधन, स्टाफ, भत्ते और सरकारी बंगले जैसी सुविधाओं का आनंद उठाता रहे.

सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि प्राकृतिक संसाधन, सार्वजनिक भूमि और सरकारी आवास सार्वजनिक संपत्तियां हैं जिन पर देश की जनता का हक है. न्याय और औचित्य की अवधारणाओं से निकले बराबरी के सिद्धांत को ही ध्यान में रखकर राज्य को उपरोक्त संपत्तियों का बंटवारा या आवंटन करना चाहिए. किसी पूर्व मुख्यमंत्री को सुविधाएं जारी रखने का अर्थ है बराबरी के संवैधानिक सिद्धांत की अनदेखी.

कोर्ट ने ये भी बताया था कि तमिलनाडु जैसै राज्य में पूर्व मुख्यमंत्रियों को सरकारी आवास देने का प्रावधान नहीं है. लेकिन बिहार और असम जैसे राज्यों ने कार्यकारी निर्देशों के जरिए ऐसे प्रावधानों का रास्ता बनाया है. लोक प्रहरी नामक एक एनजीओ की याचिका पर सुनाये गये इस फैसले को सभी राज्य सरकारों के लिए नजीर माना जाना चाहिए था. लेकिन उत्तराखंड में इसकी अनदेखी हुई.

बात जनप्रतिनिधियों को हासिल होने वाली सुविधाओं की ही नहीं है, विधायकों और सांसदों को मिलने वाले वेतन भत्तों आदि पर भी गौर करना चाहिए. क्योंकि बड़े फलक में इन सब मुद्दों का एक समवेत अर्थ तो निकलता ही है.

राज्य सरकारें विधायकों को काफी आकर्षक पैकेज देती हैं. एक आंकड़े के मुताबिक पिछले सात साल में देश की राज्य विधानसभाओं में चुन कर आए विधायकों के वेतन भत्तों में 125 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हो चुकी है. हर राज्य में वेतन भत्तों की दर अलग अलग हैं. सबसे ज्यादा भुगतान करने वाले तीन राज्यों तेलंगाना, दिल्ली और मध्यप्रदेश में प्रति माह दो से ढाई लाख रुपये के बीच का वेतन है. सबसे कम वेतन त्रिपुरा और मेघालय में है. देश के सभी राज्यों में विधायकों का औसत वेतन तमाम भत्तों को मिलाकर एक से डेढ़ लाख रुपये का है. उसके अलावा वाहन, ईंधन, फोन जैसी अन्य सुविधाएं भी हैं, पेंशन और फैमिली पेंशन तो है ही.

सांसदों की बात करें तो 2018 में उनके वेतन-भत्ते आदि में वृद्धि की गई थी. कोरोना संकट की वजह से एक साल तक तीस प्रतिशत की कटौती को छोड़ दें तो सांसदों का मूल वेतन ही एक लाख रुपये प्रति माह है. निर्वाचन क्षेत्र भत्ता 70 हजार और ऑफिस भत्ता 60 हजार रुपये दिया जाता है. इनके अलावा बहुत सी अन्य रियायतें और लाभ भी हैं जिनमें आजीवन पेंशन भी शामिल है. द ट्रिब्यून वेबसाइट में आरटीआई के हवाले से प्रकाशित एक रिपोर्ट के मुताबिक पूर्व सांसदो की पेंशन पर केंद्र सरकार साढ़े 70 करोड़ रुपये का खर्च कर देती है.

इन पूर्व सांसदों में फिल्मी सितारे और उद्योगपति भी शामिल हैं. कोरोना संकट के दौर में जब खर्चों को कम करने और मितव्ययिता की बातें की जा रही हैं तो केंद्र  हो या राज्य सरकारें, सभी को अपने उन फैसलों पर भी फिर से गौर करना चाहिए जो राजस्व पर बोझ बढ़ाने वाले ही साबित होते हैं.

समझा जा सकता है कि जनप्रतिनिधि किस तरह आम से खास बनते जाते हैं और किस तरह एक अघोषित वर्ग विभाजन बन जाता है आम नागरिक बनाम “वीआईपी” नागरिक का. वीआईपी कह देना ही मानो काफी न हो इसलिए “वीवीआईपी” संस्कृति भी अब इस विभाजन को और पुख्ता बना चुकी है.

संवैधानिक लोकतंत्र के भीतर पनप चुके इस नए किस्म के सामंतवाद के कारणों की तलाश लंबे समय से की जा रही है और इसके दुष्प्रभावों पर राजनीति, संविधान और कानून के विद्वान ही नहीं, समाजविज्ञानी भी चिंताएं जता चुके हैं और सामाजिक कार्यकर्ता आंदोलनरत रहे हैं. लेकिन ये भी सही है कि अपने संवैधानिक अधिकारों से जुड़े मामलों पर जनता अक्सर मुखर नहीं होती है. क्योंकि वो उन्हें सीधे तौर पर खुद को प्रभावित करने वाले मुद्दों के तौर पर नहीं पहचान पाती. साधनसंपन्न, शक्तिशाली और वीआईपी जमात के रुतबे को वो स्वाभाविक या नियति मानकर स्वीकार करने लगती है. जबकि समानता, जनपक्ष और औचित्य के लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए उसे संकट के रूप में देखा जाना चाहिए. अदालतों ने भी अपने ढंग से इन्हीं चिंताओं को रेखांकित किया है.

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