(वरिष्ठ पत्रकार चारू तिवारी की कलम से)
उत्तराखंड के लोकगीतों में समसामयिक सवाल शामिल होते रहे हैं। वहां के आदि गायक ‘बेडा’ इस तरह के गीत गाते रहे हैं। आजकल देश में टिड्डियों के हमले के समाचार प्रमुखता से लिखे और दिखाये जा रहे हैं। ‘सलौ’ नाम से एक पुराना गढ़वाली लोकगीत इसी समस्या पर केन्द्रित है।
सलौ (टिडि्डयों का दल)
सळौ, डारि, ऐ गैना, डालि-बोटी खै गैना।
फसल पात खै गैना, बाजरो खाणो कै गैना।
सळौ डारि डांड्यूं मा, बैठी गैन खाड्यूं मा,
हात झेंकड़ा लीन, सळौ हांकि दीन,
काकी पकाली पळेऊ, काला हकाल मलेऊ।
भैजी हकालू टोपीन, बौऊ हकाली धोतीन।
उड़द गॅथ खै गैना, छूरी सारी कै गैना।
भैर देखा बिजो पट, फसल देखा सफाचट।
पड़ीं च बाल-बच्चैं की रोवा रो,
हे नौनों का बुबा जी, सळौ ऐन सळौ।
हिन्दी भावार्थः
टिडि्डयों का दल आकर पेड़-पौंधो को चट कर गई है। सब फसल-पात चाट गई है और बाजरा खा गई है। टिडि्डयों का यह दल आया और खड्डों में बैठ गया है। इसे हाथों में टहनियां लेकर उड़ाया जा रहा है। अब यही काम रह गया है कि चाची घर में खाना बनायेगी और चाचा खेतों से इन टिडि्डयों के दल को भगायेंगे। भाई टोपी से तो भाभी अपनी धोती से इन्हें भगायेंगे। ये टिडि्डयां उड़द और लोबिया खा गई। खेतों को खाली कर गई। बाहर अंधकार छाया है। फसल चैपट हो गई है। बच्चों का रोना-धोना हो रहा कि पिताजी टिडि्डयां आ गई हैं।