उत्तराखंड में आपदाओं पर भी गाए जाते रहे हैं गीत

(वरिष्ठ पत्रकार चारु तिवारी की कलम से)
पहाड़ में आपदाएं समय-समय पर आती रही हैं। लोकगीतों में भी इनका मार्मिक चित्रण है। सतपुली नयार और अलकनंदा में आई बाढ़ पर दो लोकगीत-
1.
बीस सौ आठ भादों का मास,
सतपुली मोटर बगीन खास।
आसमान लैगे बादल को घेरो,
नी कारा भायों सतपुली डेरो।
नयार कढीगे कनो पाणी,
किस्मतन हाय क्या बात ठांणी।
काल का डोरी निन्दरा ऐगी,
गिड़गिड़ थिरथिर सुणेण लैगी!
खड़ा उठा भायो देखा भैर,
बगीक औन्दन सांदण खैर!
घनघोर निंदरा जूब सबू येगी
मोटर का छत पांणी भोरे गे,
डरैबर कलैंडर सबी कठा होवा
अपनी गाड्यों मा पत्थर मोरा
गरी ह्वे जाली गाड़ी रुकि जालो पाणीं
हे पापी नयार क्या बात ठांणी
अब तोड़ा जंदेऊ कपफड्न्यों खोला
हे राम! हे-राम, हे शिव बोला
डरैबर कलैंडर सबी भेंटी जौला
ब्याखन विटोन येखूली रौला
भग्यानू की मोटर छाला लैगी
अभाग्यों की मोटर डूबण लैगी
शिवानन्दी की छयो गोबरदन दास
द्वी हजार रुप्या छया तैका पास
गाड़ी बगदी जब तैन देखी
रुप्यों की गड़ोली नयार पफेंकी
हे पापी नयार कमायों त्वैकू
मंगसीर का मैना ब्यो छऊ मैकू
सजपुली का लाला तुम घौर जैल्या
मेरी हालत मेरी मां मा बोलल्या
मेरी मां मा बोल्यान तू माजी मेरी
ती रयो मां जी गोदी को तेरी
मेरी मां को बोल्यान नी रयी सास
सतपुली मोटर बगीन खास।
हिन्दी भावार्थ: पौड़ी जनपद के सतपुली में वर्ष 1952 में नयार में भीषण बाढ आई। सतपुली गढ़वाल क्षेत्र का एक प्रमुख स्टेशन था। यहां बसें रुकती थी। एक रात को भारी बारिश और बाढ़ में इन बसों की छतों में सो रहे ड्राइवर और कंडक्टरों सहित कई लोग बाढ़ के पानी में नींद में ही बह गये। इस त्रासद घटना पर एक बहुत ही मार्मिक गीत बेडाओं ने गाया। जिसमें इस घटना को सिलसिलबार रखा गया है- संवत दो हजार आठ में भादों के महीने सतपुली खास में मोटरें बह गई। आसमान में बादलों को घेरा लगा हुआ है। भाइयों आज सतपुली में डेरा मत करो। नयार में पानी चढ़ने लगा। न जाने किस्मत ने यह कैसी ठानी है। लोगों को काल की डोरी से निंद्रा आ गई। आकाश में गिड़गिड़-घिरघिर सुनाई देने लगा। खड़े हो जाओ भाइयो बाहर देखो। सांदन और खैर के पूड़े बहकर आ रहे हैं। शिवनंदी का एक गोवर्धनदास था। उसके पास दो हजार रुपये थे। उसने गाड़ियों को बहते हुये देखा तो रुपयों का बंडल नयार नदी में फैंक दिया। उसने कहा पापी नयार तेरे लिये ही क्या कमाई की थी? मगसीर में महीने में ही मेरा ब्याह था। भाग्यशाली साथी घर जायेंगे। मैं मछलियों का ग्रास बनूंगा। मां ने घर के बाहर सब्जी के खेतों में ककड़ी बोई थी। उन पर झुंड के झुंड ककड़ियां लगी होंगी पर मैंने चखी तक नहीं।
2.
बीसा सौ सात की कथा लांदू,
अलकनंदा बाढ़ को गीत गांदू!
गते छै पांच, अर सौण मास,
सूणीक यो दिल होंद उदास!
गिड़गिड़ सर्ग गिगड़ान लैगे,
घनघोर वर्खा डांडू मा ह्वैगे!
गाड़ गदनि झट बढि ऐ गैन,
होली परलैं पर नी जाणी कैन!
अलकनंदा माता सांत सदानी,
तेरी पूजा लगौंदा पंडित ज्ञानी!
अलकनंदा को बढिगे पाणी,
कु जाणी माता न क्या बात ठाणी!
नीस की गंगा कनी अगास ऐगी,
बेलाकूची मा काल को वास है्वेगी!
अलकनंदा भाई क्या सूझे त्वैकू,
किलै पत्थर पराण है्वे दिल ब्वै कू?
बढ़े भयंकर कनो पाणी को जोर,
यात्री भायों मा मचीगे शोर!
देखद-देखदी कनो यो काल आए,
बत्तीस गाड़ियों को पता नी पाए!
है जलम भूमि छै त्वैकू परणाम,
मुलकी भायों मा मेरी राम-राम!
कैकी बगीन नाज-कुठारी,
कैकी बगीन जौंल तिबारी!
जौं कू छौं मुलक धधकारो,
तौं कू नी रयो चुल्ला को खारो!
मंदिर-गिरजा का छौ मसारी,
झटपट टूटीक स्यो भी सिधारी!
आठी झणौं कू छौ एक परीवार,
तैं कू नी बच्यो क्वी पाणी देन्दार!
विपता मा मां-बाप देखदा रैन,
मां की गोदी का लाल गंगा समैन!
शिवजी का बगीन सैरा मन्दीर,
कर्णप्रयाग, लंगासू गाड का तीर।
हे गंगा माई कन तेरा मन आई,
तू होली माता, परलै करी कनी माई।
हिन्दी भावार्थः संवत बीस सौ आठ की कथा सुनाता हूं। अलकनंदा की बाढ का गीत गाता हूं। छह गते थी और सावन का महीना था। सुनकर दिल उदास हो जाता है। गिडगिड़ करता हुआ आकाश गरजने लगा। शिखर पर घनघोर वर्षा होने लगी। नदी-नाले सब चढ़कर आ गये। प्रलय हो जायेगी यह किसी ने नहीं जाना। अलकनंदा तो सदा ही शांत रही है। पंडित और ज्ञानी तेरी पूजा करत रहे हैं। मां अलकनंदा का पानी बढ़ गया है। पता नहीं माता ने क्या बात ठानी है। नीचे बहने वाली गंगा आकाश को चढ़ गई है। वेलाकूची में काल का वास हो गया है। अलकनंदा माई तुझे ये क्या सूझी। मां आखिर पत्थर प्राण क्यों हो गई। पानी भयंकर होकर बढ़ आया है। यात्राी भाइयों में शोर मच गया है। देखते-देखते यह कैसा काल आ पहुंचा। बत्तीस गाड़ियों का पता तक न रहा। हे जन्म भूमि, तुझे प्रणाम है। मुल्क-देश के भाइयों को मेरी राम-राम। किसी की अनाज के कोठार बहे, किसी की युगल तिवारियां बह गई। मुल्क भर में धूमधाम थी, उनके घर के चूल्हे पर राख तक न रही। मलारी में गिरजा का एक मंदिर था, झटपट वह भी सिधर गया। आठ जनों का एक परिवार था, उसका कोई पानी देने वाला नहीं बचा। विपत्ति में मां-बाप देखते रह गए, मां की गोदियों के लाल गंगा ले गई। किसी की युगल तिबारियां बह गई, शिवजी के सारे मंदिर बह गये, जो कर्णप्रयाग और लंगासू में नदी किनारे थे। हे गंगा माई! तेरे मन में यह कैसी बात आई, तू माता है, तूने कैसी प्रलय कर डाली।

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