रुद्रप्रयाग (नेटवर्क 10 संवाददाता)। कोरोना महामारी और इस दौरान चल रहे लॉकडाउन ने तमाम परंपराओं को भी बदल कर रख दिया है। इस कड़ी में देवभूमि के देवस्थानों की परंपराएं भी बदली हैं। चमोली जिले में स्थित द्वितीय केदार भगवान मध्यमेश्वर की पूजा अर्चना भी इस दौर में बदल गई है। ऐसा पहली बार हो रहा है जब भगवान की डोली को पैदल न ले जाकर वाहन से रवाना किए जाने की तैयारी हो रही है।
आपको बता दें कि भगवान मध्यमेश्वर की डोली आज यानि 9 मई को अपने धाम के लिए रवाना होगी। इससे पूर्व, बाबा केदार की डोली भी वाहन से ही गौरीकुंड पहुंची थी। मध्यमेश्वर धाम के कपाट 11 मई को खोले जाने हैं, जबकि बाबा की डोली नौ मई को मध्यमेश्वर के लिए रवाना होगी। इसके अलावा ओंकारेश्वर मंदिर ऊखीमठ में भगवान मध्यमेश्वर को लगने वाले छाबड़ी भोग में भी तीन गांवों की दो-दो महिलाएं ही शामिल होंगी।
परंपराओं से हटकर इस बार द्वितीय केदार भगवान मध्यमेश्वर की डोली अपने शीतकालीन गद्दीस्थल ओंकारेश्वर मंदिर ऊखीमठ से नौ मई को वाहन के जरिये प्रथम पड़ाव रांसी पहुंचेगी। बुधवार को जिलाधिकारी मंगेश घिल्डियाल के साथ हुई पंचगाईं व पंच गौंडारी प्रतिनिधियों की बैठक में यह निर्णय लिया गया। तय हुआ कि इस दौरान डोली को मंदिर से मंगोलचारी तक जमाणियों के माध्यम से ले जाया जाएगा। यहां से आगे का सफर डोली वाहन से तय करेगी। यही नहीं, दस मई को रांसी से दो किमी आगे भी डोली वाहन से ही जाएगी और फिर पैदल गौंडार गांव पहुंचेगी। 11 मई को सुबह सात बजे डोली गौंडार से रवाना होगी और दोपहर 11.30 बजे देवदर्शनी पहुंचेगी। दोपहर 12 बजे मंदिर के कपाट खोल दिए जाएंगे। बताया गया कि कपाट खुलने के मौके पर सीमित संख्या में ही लोग मौजूद रहेंगे।
कोरोना संक्रमण का प्रभाव मठ-मंदिरों में पीढिय़ों से चली आ रही धार्मिक एवं सांस्कृतिक परंपराओं पर भी पड़ रहा है। इसी कड़ी में आदि बदरी मंदिर प्रबंधन समिति ने चमोली जिले के आदि बदरी मंदिर परिसर में 11 से 13 मई तक आयोजित होने वाले प्राचीन नौठा कौथिग को स्थगित कर दिया है। अब इसे प्रतीक रूप में नए अनाज का भोग लगाकर मनाया जाएगा।
इतिहास में यह पहला मौका है, जब भगवान आदि बदरी को नए अनाज का भोग लगाने के मौके पर नौठा कौथिग आयोजित नहीं हो रहा है। परंपरा के अनुसार खेती, रंडोली, मालसी सहित आदि बदरी क्षेत्र के दर्जनों गांवों के ग्रामीण भगवान आदि बदरीनाथ को प्रथम भोग लगाने के लिए वाद्य यंत्रों के साथ खेती के मालगुजार नेतृत्व में मंदिर परिसर पहुंचते हैं। कहते हैं कि पीढिय़ों पहले प्रथम पूजा के लिए ग्रामीणों में लाठी-डंडों से संघर्ष होता था। इस युद्ध में जो दल विजयी होता था, उसे ही प्रथम पूजा का अधिकार मिलता था। आज भी मंदिर परिसर में ग्रामीणों के बीच प्रतीकात्मक युद्ध होता है।