बागेश्वर: साँस्कृतिक दृष्टि से इस स्थल का महत्व विशेष है. इस स्थल के मेला-ठेला, पुरातत्व और इतिहास एवं आर्थिक पक्ष को दृष्टिगत रखते हुए इसके साँस्कृतिक व धार्मिक पहलू के अन्तर्गत भी नजर अथवा दृष्टिपात करना आवश्यक है. धार्मिक पक्ष के अन्तर्गत बागनाथ मन्दिर में प्रतिदिन भोग लगाया जाता है. इस भोग को मन्दिर की व्यवस्था हेतु नियुक्त रावल लोगों की प्रति परिवार बारी लगती है जिस परिवार की बारी होगी उसी परिवार का सदस्य ही मन्दिर में भोग लगवाने हेतु सामग्री देते हैं अथवा जाते हैं.
प्रतिदिन भोग में पाँच किलो चावल, एक किलो दाल (उड़द, गहत, राजमा, अरहर आदि, मलका मसूर नहीं देते थे.) नमक, मिर्च, मसाला आदि, धूप-दीप जलाया जाता है. भोग में एक अथवा आधा पाव घी सामर्थ्य के अनुसार साथ में सामर्थ्य के अनुसार 1 किलो से पाव भर तक तेल के साथ बाती भेंट आदि दी जाती है. वर्तमान में भोग लगवाये जाने की व्यवस्था रावल परिवार ने पंडित को रखा गया है जो कि प्रतिदिन भोग लगवा सके. इस दिन कोई भी सदस्य अथवा परिवार का कोई भी बाहरी व्यक्ति भोग लगवा सकता है बशर्ते की उसे रुपया अथवा सामग्री खरीद कर पुजारी को देना पड़ता है. भोग लगाते समय इस बात का ध्यान रखा जाता है कि उस समय शमशान घाट में कोई चिता न जल रही हो. बिना शव के घाट में पहुँचे अथवा जलने के बाद ही पूजा होती है. अपरिहार्य कारणों से यदि कोई शव शमशान घाट में नहीं पहुँचता है उस समय तक अर्थात दो तीन बजे तक भोग लग पाना संभव नहीं होता है. ऐसा समय वर्ष में कभी ही आता है अन्यथा ऐसा नहीं के बराबर ही होता है. अतः यह भी कहा जा सकता है कि सोमवारी अमावस्या की तरह कभी हो जाता था अथवा है. इस दिन भोग लगने से पहले कम्बल का टुकड़ा जला दिया जाता था, और जलाते थे ऐसी लोक परम्परा थी. यह परम्परा, अब कुछ वर्षों से नहीं चल रही है ऐसा बागनाथ मन्दिर के पुजारी खीमानन्द पंत का कथन है.
इसी तरह काल भैरव मन्दिर में सवा किलो से सवा पाँच तक स्वेच्छा से अधिक भी कोई भी खिचड़ी (उड़द, चावल मिश्रित) चढ़ाने का प्राविधान है. कम से कम सवा किलो तो चढाना ही है. इसके साथ भेंट, घी, तेल, विभिन्न मसाले आदि यहाँ भी बाघनाथ मान्दर की तरह रोज भोग लगता है.
राजा जगत चन्द शाके 1710 में यहाँ की भोग व्यवस्था हेतु एक ताम्रनाली भी अर्पित की गयी जिसमें कितनी सामग्री गाँव-गाँव से उघानी है इसका व्यौरा भी दिया गया है. यहाँ के पुजारियों की भी रावल परिवार की तरह रोज प्रति परिवार बारी आती है. जैसा कि बागनाथ में चावल का भोग लगता है यहाँ खिचड़ी के साथ-साथ पुड़ी भी बनायी जाती. बलि के दिन यहाँ बकरे का सिर चढ़ाया जाता है साथ में पुजारी की एक सापड़ी निर्धारित की गयी है. कभी-कभी यहाँ भक्त जनों द्वारा लाखा (हिलवाड) बोका, बकरियों की इतनी भीड़ हो जाती है कि क्षेत्र में जगह नहीं हो पाती है.
बागेश्वर में एक परम्परा और भी है कि चिता को जलाने के लिए ढिकाल भैरव मन्दिर की धूनी से आग की मशाल ली जाती है. इसी मशाल से चिता में आग अथवा मुखाग्नि दी जाती है. यह एक प्रकार लेकर रूप में अथवा इस शमशान स्थल में जलाने हेतु सहमति दी जाती है और बदले में इस आग की कीमत पहले दो रूपये से बढ़कर आज बीस अथवा तीस रुपया अथवा स्वेच्छा से जो जितना अधिक दे सके, सम्बन्धित पर निर्भर है. बिना यहाँ से आग लिए चिता को नहीं जला सकते है ऐसी लोक मान्यता है. तत्कालीन समय में चन्द राजाओं ने भी बहुत से गाँव को गूँठ में यह व्यवस्था की गयी है कि उन्हें मृतक व्यक्ति की चिता हेतु कोई पैसा नहीं देना पड़ता. आज भी नहीं देते हैं. उदाहरणार्थ सोमेश्वर के पास भाना राठ बोरा राह आदि लोग आज भी नहीं देते हैं. अतः यह कहा जा सकता है कि यह परम्परा सदियों से राजाओं द्वारा अपनायी गयी एक कर नीति है.
बागनाथ मन्दिर में प्रतिवर्ष शिवरात्रि में मेला लगता है और इस दिन बम भोले व जय बागनाथ के अलावा कोई दूसरा शब्द नहीं होता है. इसी तरह सावन मास में प्रति सोमवार के अतिरिक्त भी यहाँ भक्तों का स्नान के लिए तांता लगा रहता है. प्रति माह के पर्वों में अमावस्या, पूर्णिमा, पडेवा, पंचमी, अष्टमी, एकादशी, त्रयोदशी एवं चतुर्दशी को यहाँ भक्तों का स्नान व दर्शन हेतु भीड़ लगी रहती है. इस परिसर स्थल में स्थानीय लोगों के अतिरिक्त बाहर के पर्यटक लोग भी आते हैं. यहाँ प्रतिवर्ष सावन की काल चतुर्दशी के दिन और विभिन्न पदों में स्थानीय लोग गंगा स्नान के लिए आते हैं.
इसी तरह जूना अखाड़े में भी प्रति पर्व और त्यौहारों का पालन किया जाता है. यहाँ की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि प्रति चिता पर धूनी से अग्नि का एक प्रकार से कर लिया जाता है जिससे महन्तों अथवा जूना अखाड़े में पधारने वाले साधु संतों को उचित समय पर भोजन मिल सके. सरयू नदी के तट पर स्थानीय जनों के अतिरिक्त देश-विदेश के लोग भी यहाँ पर विभिन्न पर्वों में अपने पूर्वजों के ऋण से मुक्ति के लिए श्राद्ध, तर्पण आदि भी किया जाता है. यहाँ पर विभिन्न पदों में पंडित जी अपने-अपने क्षेत्रों, गाँव के लोगों की सुविधा हेतु अपने जजमान की पूजा हवन, तर्पण आदि किया करते है. शहर में गाय भी मिल जाती है ताकि वे गौदान भी कर सके. यहाँ प्रति वर्ष चैत्र, सावन, माघ मास में यज्ञोपवीत संस्कार भी करवाये जाते हैं. बागनाथ मन्दिर में इस प्रकार बागेश्वर के तीर्थ स्थल के विकास के लिए स्थानीय जन प्रतिनिधि, प्रशासन आदि जन एक जुट होकर जुटे हैं.
(डॉ. मदन चन्द्र भट्ट और चन्द्र सिंह चौहान का यह लेख श्री नंदा स्मारिका 2011 से साभार लिया गया है)