मत बांधों कारपोरेट पत्रकारों से इतनी उम्मीदें

(वरिष्ठ पत्रकार गुणानंद जखमोला की कलम से)
– अर्नब, सुधीर, रवीश, राजदीप सब बाजार का हिस्सा हैं
– अब कारपोरेट जर्नलिज्म का जमाना है मिशनरी नहीं

रिपब्लिक के एडिटर इन चीफ अर्नब गोस्वामी ने कांग्रेस की वरिष्ठ नेता सोनिया गांधी पर की गई टिप्पणी और अर्नब पर कथित हमले के विवादों के बीच मैं आपको ‘रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स’ के वार्षिक विश्लेषण की जानकारी दे दूं। इस विश्लेषण के अनुसार वैश्विक प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक में 180 देशों के समूह में भारत 142वें नंबर पर है., जबकि पिछले साल भारत 140वें स्थान पर था।

यानी के भारत में प्रेस की स्वतंत्रता बहुत खतरे में है। पत्रकारों पर हमले बढ़े हैं। प्रेस पर भारी दबाव है। मोदी सरकार प्रथम और मोदी सरकार दो के दौरान लैंग्वेज प्रेस दम तोड़ चुकी है। देश के बड़े-बड़े मीडिया घराने भारी दबाव में हैं। पत्रकारों पर अंधाधुंध केस दर्ज किये जा रहे हैं। पत्रकारों पर खूब हमले हो रहे है। 2018 तक तो भारत में दर्जनों पत्रकारों की हत्याएं भी हुई।

मंदी आते ही सबसे पहले मीडिया ने ही पत्रकारों को निकालना शुरू कर दिया। अरबों रुपये कमाने वाले मीडिया घराने सबसे पहले गरीब पत्रकारों की छंटनी करता है। लाभ की स्थिति में भी उन्हें क्या मिलता है? हां, सही है कि लाख रुपये महीना पगार वाले पत्रकारों की लंबी फौज है। लेकिन हजारों पत्रकार ऐसे भी हैं जो महानगरीय पत्रकारिता के तमाम जोखिमों के बावजूद 25-30 हजार रुपये ही कमाते हैं। जैसे ही मीडिया घरानों की आय कम होती है, सबसे पहले गाज इन्हीं छोटे पत्रकारों पर गिरती है। यानी जो फील्ड में होते हैं।

जनता एक पत्रकार को देती क्या है? खबर अच्छी लिखो तो उसका जिक्र नहीं, विरोध में लिखो तो आरोप कि मीडिया बिका हुआ है। जबकि सच्चाई यह है कि इस देश में सबसे सस्ता पत्रकार है जिसको एक कप चाय पिलाकर आप आधे-एक घंटे तक अपनी व्यथा कह सकते हो, जिस व्यथा को आपका बेटा या पत्नी भी सुनने के लिए तैयार नहीं है। आज तक मैंने अपने दो दशक से भी अधिक पत्रकारिता के करियर में नहीं सुना कि जनता ने कभी पत्रकारों के हित में आंदोलन किया हो या जोरदार आवाज उठाई हो? विडम्बना है कि जब पत्रकारों को रोज निकाला जा रहा हो, तब भी समाज का हर वर्ग उनके पास भूख, गरीबी, समस्या लेकर जा रहा है लेकिन कोई पत्रकार से नहीं पूछता कि भाई तुम्हें भी कोई दुख है क्या? क्या पत्रकार का परिवार नहीं है, क्या उसकी समस्या नहीं हैं।

निष्पक्षता और जनपक्षधरता की सारी उम्मीदें हम पत्रकारों से ही क्यों?
पत्रकारों और मीडिया घरानों की मजबूरी को इसे इस तरह भी समझ सकते हैं कि जो विरोध में गया तो उसके विज्ञापन बंद। उस पर मौका मिलते ही केस दर्ज कर दिया जाए या फिर उस पर हमले कर दो, या मार डालो। डर या दबाव क्या होता है, इसे सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जस्टिस और मौजूदा राज्यसभा सदस्य रंजन गोगाई से पूछा जा सकता है। डर तो डर होता है जनाब। पत्रकार इससे अछूते कैसे? मोदी शासन में कई दिग्गज पत्रकारों जिनकी बहुत फेहरिस्त है, उनको किसी कोने में बिठा दिया गया। कश्मीर में धारा 370 हटाने के बाद पत्रकारों का क्या हाल हुआ? सुप्रीम कोर्ट न होता तो वहां प्रेस के नाम पर सबकुछ खत्म हो गया होता।

दरअसल अर्नब गोस्वामी, सुधीर या रवीश या राजदीप जैसे दिग्गज पत्रकारों से लेकर मुझ जैसे छोटे पत्रकार तक बाजार का एक हिस्सा हैं। बाजार पर जिसका कब्जा, हम उसके गुलाम। वैसे भी पत्रकारिता अब ऐसा एक पेशा है, मिशन नहीं। जो बाजार में बना है, उसकी तूती बोलती है और बाजार से गायब, तो उसको कोई नहीं पूछता। एक पत्रकार यदि एक संस्थान को छोड़ता है तो उसके साथी पत्रकार ही बाजार में बात फैलाते हैं निकाल दिया गया। यानी आपकी कुर्सी है तो पत्रकार हो। नाशुक्रा पेशा है।

यही कारण है कि बाजार में बने रहने के लिए दीपक चैरसिया को कहना पड़ता है कि मोदी जी आप थकते नहीं हो क्या? अर्नब को दो भारी-भरकम चैनल चलाने के लिए सोनिया और राहुल को अनावश्यक टारगेट करना पड़ता है और सुधीर और अंजना को मोदी चालीसा पढ़ना पड़ता है तो बाजार में इन्हें टक्कर देने के लिए रवीश को सरकार पर प्रहार करने पड़ते हैं। हम सब बाजार का हिस्सा हैं, इसलिए हमारी व्यथा को समझिए और हमेशा यह उम्मीद मत कीजिए कि हम निष्पक्ष पत्रकारिता करें और आप अपना नफा-नुकसान आंक कर काम करें।

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