देहरादून. अफगानिस्तान (Afghanistan) में इस समय तालिबान (Taliban) के कब्जे के बाद उथल पुथल मची हुई है. हर कोई देश छोड़ने का प्रयास कर रहा है. इस बीच हम आपको अफगानिस्तान के आखिरी राजघराने के बारे में बताते हैं, जो 200 साल पहले निर्वासित होकर भारत आया था. इस राजघराने ने ही देहरादून में बासमती चावल पेश किया था.
अफगानिस्तान का आखिरी राजघराना अंग्रेजों द्वारा भारत में निर्वासित किया गया था. तबसे उनके वंशज देहरादून में ही रह रहे हैं. इस राजघराने के 7 वंशज देहरादून में किसान के रूप में गुजर बसर कर रहे हैं. इन्होंने ही देहरादून में बासमती चावल पेश किया था, जो कि काफी प्रसिद्ध है.
टाइम्स ऑफ इंडिया की रिपोर्ट के अनुसार इसकी कहानी 1840 में काबुल से मसूरी के बीच की है. तब पहला एंग्लो-अफगान युद्ध हो रहा था. उस समय अंग्रेजों ने गजनी में जीत दर्ज की थी. उस दौरान बराकजई साम्राज्य के संस्थापक और काबुल, पेशावर व कश्मीर के शासक दोस्त मोहम्मद खान ने अंग्रेजों के सामने समर्पण कर दिया था. उन्हें मसूरी ले आया गया था.
अब उनके पोते के पड़पोते मोहम्मद अली खान बताते हैं कि इस समय जो जगह वाइनबर्ग एलेन स्कूल के नाम से जानी जाती है, वहीं पर वह रहते थे. उस जगह को स्थानीय तौर पर बाला हिसार एस्टेट के नाम से जाना जाता था.
दोस्त मोहम्मद खान ने 1842 में फिर काबुल का रुख किया था. इसके चार दशक बाद जब दूसरा एंग्लो-अफगान युद्ध खत्म हुआ तो उनके पोते याकूब खान ने खुद को भी उनके जैसी स्थिति में पाया. उन्हें भी अंग्रेजों ने काबुल से बेदखल कर दिया था. इसके बाद वह 1879 में देहरादून आ गए थे. मोहम्मद अली खान के अनुसार याकूब खान को शिकार करना पसंद था और पहाड़ों से प्यार था. उन्हें यहां दोनों चीजें मिलीं. वह रायवाला शिकार के लिए जा सकते थे.
देहरादून के इतिहासकार लोकेश ओहरी कहते हैं कि दोस्त मोहम्मद खान को पुलाव बेहद पसंद था. लेकिन अपने निर्वासन के दौरान वह उसे बहुत याद करते थे. वह दून घाटी में बासमती लाए. यहां उसकी जेनेटिक वैराइटी में भी इजाफा हुआ. लोकेश के अनुसार उनके पोते याकूब खान ने इसे आगे बढ़ाया. उन्होंने बासमती चावल के बीज पलटन बाजार में व्यापारियों को दिए और इसकी खेती करने को कहा. इसके बाद दून घाटी का मौसम बासमती चावल के लिए बेहद अच्छा साबित हुआ और उसकी अफगानिस्तान से भी अच्छी वैराइटी उत्पन्न होने लगी.