(वरिष्ठ पत्रकार अजय ढौंडियाल की कलम से)
उत्तराखंड में कोरोना लगातार बढ़ रहा है और अब हालात डरावने होने जा रहे हैं। पिछले ग्यारह दिन में प्रदेश में पचास से ज्यादा मामले सामने आ चुके हैं। कोरोना संक्रमितों का आंकड़ा दो दिन पहले सैकड़ा पार कर चुका है और जब तक ये टिप्पणी लिखी जा रही है तब तक कुछ और मामले सामने आ चुके होंगे। लेकिन सवाल ये उठता है कि इन हालात के लिए जिम्मेदार आखिर कौन है। जैसा कि हर हालात में होता है, हम सब सरकार और प्रशासनिक तंत्र को जिम्मेदार मान बैठते हैं, क्या यहां भी ऐसा है। बिल्कुल नहीं। इन हालात के लिए आप और हम ही जिम्मेदार हैं।
दरअसल उत्तराखंड में ये सब कैसे हुआ। हालात अभी बेकाबू तो नहीं हैं लेकिन काबू में भी नहीं आ रहे हैं। उत्तराखंड में कोरोना की रफ्तार तब से बढ़ी है जब से यहां प्रवासी भाइयों के आने का सिलसिला शुरू हुआ। यहां हम उनको दोष नहीं दे रहे हैं। दरअसल प्रवासी भी कहां जाएगा। आखिर लौटेगा तो घर को ही। लेकिन यहां बड़ा सवाल ये है कि क्या ये वक्त लौटने के लिए महफूज था?
पहले दौर में प्रदेश की सरकार ने फैसला किया था कि सिर्फ उन लोगों को दूसरे प्रदेश से वापस लाया जाएगा जो वहां फंसे हैं। साफ किया गया था कि जो लोग राहत शिविरों में फंसे हैं या फिर अपने नाते रिश्तेदारी में कहीं फंस गए हैं सिर्फ उन लोगों को ही प्रदेश में उनके घर लाने की व्यवस्था की जाएगी। इसके बाद प्रदेश सरकार को घेरने के लिए तमाम समाजसेवी संगठन, राजनीतिक लोग और पत्रकार भी मुखर हो गए। सबने एक सुर में आवाज उठाई कि जो भी प्रवासी गांव लौटना चाहता है सरकार उसको लाने की व्यवस्था करे। सरकार को जमकर कोसा गया। आखिर सरकार ने लौटने की इच्छा रखने वालों को वापस लाने की व्यवस्था शुरू की।
सब जानते हैं कि पहाड़ों में लाखों लोग लौटेंगे तो उनके लिए वहां ऐसी व्यवस्थाएं नहीं हैं कि वे सहूलियत से रह सकें। फिर भी सरकार ने क्वारंटाइन सेंटर्स की व्यवस्था की। ये वो व्यवस्था है जो फौरी तौर पर की जा सकती है। ज्यादातर लोगों को होम क्वारंटाइन होने के निर्देश दिए गए। अब वो लोग भी तंत्र और व्यवस्था पर सवाल उठा रहे हैं। क्यों? क्या वे इस हसरत से लौटे थे कि गांव में उनके घर में सरकार उनके लिए व्यवस्थाएं बनाकर रखेगी?
अब बात ग्राम प्रधानों की। प्रधानों को जो जिम्मेदारी सरकार ने दी है वो उसे बखूबी निभाते दिख रहे हैं। प्रधानों ने ये व्यवस्थाएं किसी प्रशासनिक मदद से नहीं बल्कि खुद संसाधन जुटाकर की हैं। गांवों में पहले से मौजूद लोग खुद अपने प्रवासी भाइयों के लिए खाने और रहने की व्यवस्थाएं कर रहे हैं। तब भी प्रधानों और व्यवस्थाएं करने वालों को कोसा जा रहा है।
गांवों में प्रवासियों का विरोध नहीं हो रहा है, बल्कि बीमारी का विरोध हो रहा है। हमको बीमारी से लड़ना है, बीमार से नहीं। इसी बात को गांवों के लोग चरितार्थ कर रहे हैं। इसमें प्रवासियों के विरोध की बात कहां से आ गई। अगर प्रवासी गांव लौटकर पिकनिक जैसा माहौल पैदा कर रहे हैं, खेत में क्रिकेट खेल रहे हैं, घर में क्वारंटाइन होने की बजाए गांवभर और आसपास चहलकदमी कर रहे हैं तो इसका विरोध स्वाभाविक है।
एक बात और, गाव लौटे प्रवासियों ने हदें तो पार की ही हैं। जिनको गांव लौटने की जरूरत नहीं थी उनकी संख्या बहुतायत में है। दिल्ली, मुंबई,बेंगलुरू, चंडीगढ़, लखनऊ आदि शहरों में घर मकान और किराए पर रहकर नौकरी करने वाले लोग भी परिवार को लेकर गांवों की ओर चले आए। उनके साथ बच्चे और बूढ़े भी हैं। उन्हें कोरोनाकाल में क्या जरूरत थी गांव लौटने की। ये तो सब जानते हैं कि कोरोना के इस महायुद्ध के बीच मदद के जितने हाथ बढ़े हैं वो शायद ही पहले कभी बढ़े हों। इस दौर में कोई भूखा नहीं सो रहा है। फिर पहाड़ और अपनी माटी की दुहाई देने वालों के पास क्या सिर्फ लौटने का ही रास्ता बचा था?
अभी वक्त हाथ में है, निकला नहीं है। शपथ लीजिए कि हमेें कोरोना को हराना है और जो गाइडलाइन्स जारी की गई हैं उन्हें फॉलो कीजिए। खुद भी बचिए और दूसरे का भी ख्याल रखिए। अभी जो हालात हैं वो सिर्फ और सिर्फ हमने-आपने बनाए हैं, आगे हालात को कैसा बनाना है ये भी हमारे ही हाथ में है।