(वरिष्ठ पत्रकार योगेश भट्ट की कलम से)
क्या-क्या नहीं किया सरकार ने इस राज्य में उद्योगों को पनपाने के लिए। करोड़ों की जमीन कौड़ियों के भाव दी, खेती की जमीन खत्म कीं, भू-उपयोग बदले, तमाम तरह की छूट दीं, टैक्स हालीडे दिए, पर्यावरणीय मानकों में छूट दी, जो मांगा वो दिया, जो कहा वो किया।
मनमानी करने और शासनादेशों की धज्जियां उड़ाने की भी पूरी छूट दी, स्थानीय युवाओं को रोजगार देने के शासनादेश तो किए मगर उन पर अमल का दबाव कभी नहीं बनाया।
न कभी श्रम कानूनों की घुड़की दी और न कभी कोई सवाल-जवाब किया। कैसा भी, कोई भी उद्यमी रहा हो, राज्य के राजनेताओं और नौकरशाहों ने हमेशा हर किसी के लिए रेड कार्पेट बिछाए रखा। इतना सब करने के बाद आखिर हासिल क्या हुआ? संकटकाल में एक महीने भी ये उद्योग सरकार के साथ खड़े नहीं हो पाए। हर साल करोड़ों रूपये कमाने वाले उद्योग कोराना महामारी के कारण लॉकडाउन में अपने कामगारों को तनख्वाह देने तक के लिए तैयार नहीं हैं। उल्टा सरकार पर दबाव इस बात का बनाया जा रहा है कि उद्योगों के लिए तमाम शुल्क माफ किए जाएं, विशेष रियायतें दी जाएं, नियमों को और लचीला किया जाए।
ऐसा न किए जाने की स्थिति में उद्यमी सरकार को चेतावनी दे रहे हैं, उद्योग बंद करने की धमकी दे रहे हैं। हर कोई जानता है कि इस अंदाज को ‘ब्लैकमेलिंग’ कहा जाता है, मगर सरकार है कि मौन है। उद्योगों के इस रवैये पर सन्नाटा है। कोई यह पूछने वाला नहीं है कि सालों साल करोड़ों रूपये कमाने वाले उद्योगों की इस संकटकाल में कोई ‘जिम्मेदारी’ है भी या नहीं ?
कोई यह सवाल करने वाला नहीं है कि जिन कामगारों की मेहनत पर उद्योगों ने करोड़ों कमाए, संकट के वक्त उद्योग उनके साथ क्यों नहीं हैं ? कोई नहीं है जो ऐसे वक्त में उद्योगों को उनकी जिम्मेदारी का अहसास कराए। बल्कि बहुत संभव है कि कुछ दिनों में गुजरात, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश आदि राज्यों की तरह यहां भी श्रम कानून स्थगित कर दिये जाएं, उद्योगों को भारी भरकम पैकेज घोषित कर दिए जाएं, उनके तमाम शुल्क माफ कर दिए जाएं।
सरकार उद्योगों के दबाव में है। दरअसल उद्यमी चाहते भी यही हैं कि कोई सवाल न करे। कोई सवाल न करे, पर आखिर क्यों ? सवाल उद्योगों को सुविधाएं देने का नहीं, सवाल यह है कि जब सरकार उद्योगों को सुविधाएं देती है तो क्या उद्योगों से कमाई करने वाले उद्यमियों का कोई फर्ज नहीं बनता ?
आखिर किसी भी राज्य में उद्योगों को सुविधाएं क्यों दी जाती हैं, इसीलिए न कि राज्य का आर्थिक सुरक्षा तंत्र मजबूत होगा, राज्य का राजस्व बढ़ेगा, लोगों को रोजगार मिलेगा, छोटे कारोबारियों के लिए कारोबार के अवसर बढ़ेंगे। सवाल यह है कि उद्योग सरकार से अपेक्षा रखें और अपनी जिम्मेदारी भूल जाएं तो ऐसे उद्योगों का क्या फायदा ?
उत्तराखंड में छोटे-बड़े कुल मिलाकर चार लाख से अधिक उद्योग हैं, जिनमें से तकरीबन साढ़े तीन लाख उद्योग राज्य बनने के बाद पिछले बीस सालों में लगे हैं। इन उद्योगों में राज्य और राज्य से बाहर दूसरे राज्यों के लाखों कामगार काम कर रहे हैं। राज्य में इन उद्योगों का पचास हजार करोड़ रुपये से अधिक का साम्राज्य है। हाल ही में लॉकडाउन के दौरान सरकार ने अपील की कि कामगारों को काम से न हटाया जाए, उन्हें गुजारे के लिए वेतन दिया जाए।
आश्चर्य यह है कि सरकार की इस अपील का उद्योगों पर कोई असर नहीं रहा। जिन मजूदरों के पसीने से उद्योगों को खड़ा किया, उन मजदूरों को संकट के वक्त उनके हाल पर छोड़ दिया गया। प्रदेश के उद्योगों में काम करने वाले लाखों कामगारों के सामने आज रोटी का संकट खड़ा है, मगर कोई पूछने वाला नहीं है।
बेसहारा मजदूर या तो अपने घरों की राह पकड़ चुके हैं या फिर घर पहुंचने के लिए सरकार की मदद की बाट जोह रहे हैं। संकट के वक्त उद्योगों के मालिक सरकार और मजदूरों के साथ खड़े होने के बजाय उल्टा सरकार को आंखे दिखा रहे हैं। दूसरी ओर सरकार उद्योगों के आगे कुछ इस तरह लाचार है मानो सरकार उद्योगों की ‘कृपा’ पर हो।
अभी पिछले दिनों हरिद्वार में उद्यमियों ने सरकार को तेवर दिखाते हुए साफ कर दिया कि वे लॉकडाउन के दौरान मजदूरों को वेतन नहीं देंगे। हरिद्वार में विभिन्न उद्योग संगठनों ने मिलकर एक संयुक्त संगठन बनाया है, जो सरकार पर यह दबाव बना रहा है कि उद्योगों पर कामगारों के पक्ष में किसी भी तरह का दबाव न बनाया जाए।
उद्यमी एक ओर तो लॉकडाउन के दौरान कामगारों को वेतन देने के लिए तैयार नहीं हैं, वहीं दूसरी ओर बिजली शुल्क के भुगतान से भी इंकार कर रहे हैं। सरकार को उन्होंने चेतावनी दी है कि लॉकडाउन के दौरान किसी भी उद्योग की बिजली कटी तो सभी उद्योग बंद कर चाबी सरकार को सौंप देंगे। राज्य के उद्योग अपने संकट के वक्त अपने कामगारों की जिम्मेदारी लेने के लिए तैयार नहीं हैं।
उनका कहना है कि सरकार के पास हजारों करोड़ रुपये का रिजर्व फंड है, अगर सरकार कामगारों की मदद करना चाहती है तो उस फंड से औद्योगिक इकाइयों को आर्थिक सहयोग किया जाए। इतना ही नहीं, उद्योग कामगारों की छंटनी की अनुमति भी चाहते हैं, वे चाहते हैं कि लॉकडाउन अवधि का निर्धारित शुल्क समाप्त कर दिया जाए, बिजली की दरों में छूट दी जाए और बैंकों से लिए गए ऋण का ब्याज माफ कर दिया जाए।
राज्य में स्थित उद्योग और उद्योग संगठनों के इस रवैये ने कई गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं। खासकर ऐसे समय में जब अन्य राज्यों से बड़ी संख्या में प्रवासी उत्तराखंड का रुख कर रहे हैं। सरकार के लिए राज्य में रोजगार उपलब्ध कराना बड़ी चुनौती बना हुआ है। राज्य के उद्योगों से उम्मीद की जा सकती थी लेकिन उद्योग संगठनों के रवैये से साफ है कि जब तक मांग व उत्पादन नहीं बढ़ता तब तक वे रोजगार नहीं खोलेंगे।
ऐसे में सवाल यह है कि राज्य में ये उद्योग आखिर क्यों और किसके लिए हैं ? अगर संकट के वक्त राज्य में स्थित उद्योग राज्य की जनता और सरकार के साथ खड़े नहीं हो सकते तो फिर उनकी उपयोगिता क्या है ? अगर उद्योग अपने कामगारों की जिम्मेदारी नहीं ले सकते, पर्याप्त रोजगार नहीं दे सकते तो फिर उद्योगों को तमाम रियायतें क्यों ? हां, एक अहम सवाल यह कि अगर ये उद्योग मुनाफे में नहीं हैं, उद्योगों के मालिकों की इनसे कोई कमाई नहीं है तो फिर इन ‘बीमार’ उद्योगों का संचालन क्यों ?
कहते हैं न ताली एक हाथ से नहीं बजती। उद्योग अगर कमाई कर रहे हैं तो राज्य सरकार और अपने कामगारों के साथ संकट के वक्त खड़े होना उनकी नैतिक जिम्मेदारी है। सरकार को भी फिर उद्योगों के साथ खड़ा होना चाहिए, मगर उद्योग कमाई पूरी करें और संकट के वक्त साथ न खड़े हों तो सरकार का उद्योगों को रियायतें दिया जाना कतई न्यायसंगत नहीं है।
यह सही है कि कोरोना संकट का उद्योगों पर असर पड़ा है, उत्पादन ठप है, उद्योगों पर आर्थिक संकट से भी इंकार नहीं किया जा सकता। मगर इसका मतलब यह तो नहीं कि सरकार को ब्लैकमेल किया जाए। उद्यमी यह कैसे भूल सकते हैं कि कोराना एक महामारी से बचने की ही नहीं बल्कि इंसानियत को बचाने की भी जंग है।
यह सही है कि ऐसे वक्त में उद्योगपतियों को भी संरक्षण दिया जाना चाहिए लेकिन बड़ा सवाल यह है उद्योगों को संरक्षण कमजोर कामगार और बेसहारा मजूदर की कीमत पर ही क्यों ? उद्योगों को संरक्षण दिया जाए मगर कामगार और राज्य के हितों की कीमत पर कतई नहीं।
तय सरकार को करना है कि उद्योगों को अपनी शर्त पर संरक्षण देना है या फिर उद्योगों की शर्त पर चलना है। ध्यान रहे, किसी भी सरकार की असल परीक्षा संकटकाल में ही होती है। और मौजूदा संकटकाल तो लोकतंत्र की परीक्षा का भी वक्त है।
महात्मा गांधी के शब्दों में कहें तो ‘सच्चा लोकतंत्र केंद्र में बैठकर राज्य चलाने वाला नहीं होता, अपितु प्रत्येक व्यक्ति के सहयोग से चलता है।‘ देखते हैं सरकार आसन्न परीक्षा में पास हो पाती है या नहीं।