इस बार मिली है ग्राम प्रधानों को असली पावर, ये है परीक्षा की घड़ी…

(स्वतंत्र टिप्पणीकार डॉ वीरेंद्र बर्तवाल की कलम से)

पहाड़ में राजा के शासन में जितनी चराचरी पटवारी की होती थी, उतनी कोरोना काल में इन दिनों पंचायत प्रधान की है, जबकि कद और पद में उससे बड़े समझे जाने वाले क्षेत्र पंचायत और जिला पंचायत सदस्यों को कोई पूछ नहीं रहा। गांव जाने से पहले लोग प्रधान को फोन कर रहे हैं और गांव में अनियमित रहने वाले आगंतुकों को रास्ते पर लाने के लिए प्रधान का भय दिखाया जा रहा है।

इन दिनों प्रधान केवल रोजगार गारंटी योजना का ‘सुपरवाइजर’ नहीं रह गया, अपितु वह एक प्रकार से कोरोना महामारी का वह योद्धा बन गया है, जिसके कंधों पर चार सौ से चार हजार तक के लोगों के जीवन को सुरक्षित रखने का दायित्व है।

टिहरी में राजशाही के वक्त पटवारी का गांव में आ जाना बड़ी बात होती थी। उसके प्रति श्रद्धा का भाव भी होता था और लोग भयभीत भी रहते थे। पटवारी गांवों के लिए एक प्रकार से थानेदार था(कहीं अभी भी)। उसके पास राजस्व वसूली के साथ ही कानून के उल्लंघन में गिरफ्तार करने, हथकडी़ लगाने और कुछ आपराधिक मामलों का निपटारा करने का भी अधिकार था।

आजादी के बाद लोकतांत्रिक व्यवस्था के कारण इस पटवारी व्यवस्था में कुछ अंतर आया। त्रिस्तरीय पंचायती राज व्यवस्था में सत्ता के विकेंद्रीकरण के तहत प्रधान(कुछ राज्यों में सरपंच) को गांव का शासक बनाया गया। आर्थिक अथवा वित्तीय अधिकारों के कारण उसका महत्त्व बढा़। सरकारी योजनाओं के क्रियान्वयन में बड़ी भूमिका के कारण वह लोकप्रिय हुआ।

इसलिए गांव में प्रधान जी का बहुत सम्मान होता आ रहा है। विवाह समारोहों में दूल्हे के मामा और पंडित जी की तरह प्रधान को भी नोटों की माला अर्पित किए जाने के पीछे यही कारण है। गांव में जब कोई कष्ट में होता है तो देवता के तुरंत बाद प्रधान को याद करता है।

बीमार-घायल को कंधे पर लादकर सड़क तक पहुंचाने से लेकर भैंस खरीदने तक, शादी के लिए लड़की वालों के यहां बात पक्की करने से लेकर बीज के गेहूं मांगने तक और बिजली का बिल जमा करने से लेकर मोबाइल रिचार्ज करने तक गांवों में प्रधान का कार्य विस्तार समझा जाने लगा है। बेचारा ऐसा न करे तो पांच साल बाद ‘देख लेने’ की कचोटने वाली दर्दीली धमकियां दी जाती हैं।

इस बार प्रधानों की पावर सरकार ने और बढा़ दी है। वह सरकार और प्रशासन के निर्देशों का अंतिम पायदान पर पालन कराने वाला प्रतिनिधि है। वह न्यायिक भूमिका में है। किसको कहां और कैसे क्वारंटीन करना है, यह प्रधान का कार्य है। वह दुधारी तलवार पर सफर कर रहा है। वह बाहर से आने वाले कुछ लोगों की नाराज़गी भी झेल रहा है तो आगंतुकों के कारण कुछ ग्रामीणों का कोपभाजन भी बन रहा है, परंतु उसकी पहली प्राथमिकता सरकार के निर्देशों पर अमल करवाना है।

ठीक-ठाक पढ़ा-लिखा प्रधान भले ही इस समय पैसा न कमा सके, लेकिन कुशल व्यवस्था और व्यवहार की बदौलत जनता की वाहवाही और सरकार द्वारा पीठ थपथपाई तो कमा ही सकता है। यह प्रधानों की परीक्षा की घड़ी है। यह काल अनेक प्रधानों का भविष्य तय करेगा। केवल तमाशे में कूदने वालों और सच्चे सेवकों की पहचान इस समय हो जाएगी।

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