(वरिष्ठ पत्रकार प्रभात डबराल की कलम से)
सिख कौम कितनी ही एग्रेसिव और अपने धर्म के प्रति पागलपन की सीमा तक आस्थावान क्यों न दिखे, जब कभी दुनियां के किसी भी कोने में मानवता पर कोई संकट आता है इस कौम का सेवाभाव देखकर हर किसी का सर श्रद्धा से झुक जाता है.
सड़कों पर पैदल चल रहे मज़दूरों के पैर धोते, उनके छालों को सहलाते, तलवों पर उभरे घावों पर मरहम लगाते सिखों की तस्वीरें, इस जनम में तो दिलो दिमाग से मिटने से रही.
आपने ये भी ज़रूर नोटिस किया होगा जब सिख सेवा कर रहे होते हैं तो उन्हें कतइ फर्क नहीं पड़ता कि कोई उनकी फोटो खींच रहा है या नहीं. तस्वीरों में सेवाभाव झलकता है.
कोरोना योद्धाओं पर फूल बरसाते सिखों की तस्वीरें आपने नहीं देखी होंगी. मैने सिर्फ एक देखी, वो भी उस इंस्पेक्टर पर फूल बरसाते हुए जिसका हाथ एक निहंग ने काट दिया था और वो ठीक होकर घर लौट रहा था.
कोई ऐसी तस्वीर भी मेरी निगाह से नहीं गुजरी जहाँ चार छह सिख दो केले एक व्यक्ति को देते हुए कैमरे की ओर देखकर घमंड से मुस्कुरा रहे हों.
हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई या किसी दुसरे धर्म के बारे में मैं नहीं लिख रहा – कुछ लिखने लायक है भी नहीं. क्या लिखूं, ये कि हमारे कई मंदिरों को ये चिंता साले जा रही है कि कोरोना के कारण उनका डेली चढ़ावा कई करोड़ से घटकर कुछ लाख रह गया है?
अपने कोटद्वार के सिद्धबली मंदिर का ज़िक्र ज़रूर करूंगा. बहुत रईस मंदिर नहीं है. अच्छे दिनों में भी चढ़ावा हज़ारों में ही रहता होगा. लेकिन मंदिर का एक गेस्ट हाउस है -३०/४० से कम कमरे क्या होंगे. कुछ पुराने कमरे भी हैं.
इस समय जब घर लौट रहे प्रवासी भाइयों के क्वारंटीन के लिए जगह का टोटा है. स्कूलों के कमरों में लोग ठूंसे हुए हैं, इस अटैच्ड बाथ वाले गेस्ट हाउस का इस्तेमाल हो सकता था. कुछ दिन पहले एकाध आला अफसरों से मैंने कहा भी. उन्होंने मुस्कुरा कर कंधे उचका दिए.