मजदूरों के साथ ऐसा तो इमरजेंसी में भी नहीं हुआ…

(वरिष्ठ पत्रकार प्रभात डबराल की कलम से)

कोरोना की आड़ में मज़दूरों के कानूनों पर ऐसा भयंकर हमला कर दिया गया है जैसा इमरजेंसी में भी नहीं हुआ था।

हम सोच रहे थे कि यूपी, एमपी और गुजरात ने अपने स्तर पर अस्थाई रूप से तीन साल के लिए श्रम कानून स्थगित किये हैं – ये उनका लोकल फैसला है।

लेकिन नीति आयोग के सीईओ अमिताभ कांत ने टाइम्स ऑफ़ इंडिया में जो लेख लिखा है उसे देख कर लगता है कि ये षड्यंत्र केंद्र के स्तर से शुरू हुआ है और ये खिचड़ी काफी समय से पक रही थी।

इधर उधर की ऊलजलूल दलीलों के आधार पर अमिताभ कांत इस लेख में ऐलान कर रहे रहे हैं कि हमारे श्रम कानूनों के कारण उद्योंगों में निवेश कम हो रहा है, उत्पादन घट रहा है और रोज़गार के अवसर सिमट रहे हैं।

ये मत समझ लीजियेगा कि अमिताभ कांत बहुत बड़े अर्थशास्त्री है. वो एक आईएएस अफसर हैं और इस सेवा के अधिकारियों को आमतौर पर ये गलत फहमी रहती है कि दुनियां के हर विषय का समूचा ज्ञान बस उन्ही में समाहित है।

वैसे अमिताभ कांत की प्रशासनिक कुशलता पर किसी को कोई संदेह नहीं होना चाहिए। केरल में वो जहाँ भी जिस पद पर भी रहे, लोग उन्हें अब भी याद करते हैं। केरल को “ गॉड्स ओन कंट्री” वाला जुमला उन्ही का दिया हुआ है।

लेकिन हरेक अच्छा प्रशासक अच्छा नीति निर्धारक भी हो ये ज़रूरी नहीं है।

प्रॉब्लम ये है कि केंद्र के पास विशेषज्ञ सलाहकारों की बहुत कमी है। खासकर आर्थिकी के क्षेत्र में उन्हे सलाह देने वाला कोई ऐसा जाना माना अर्थशास्त्री नहीं है जिसे देश-दुनिया का अनुभव हो। जी हुज़ूर, अफसरों और मंत्रियों की एक फौज है जिसने प्रधानमंत्री को घेरा हुआ है।

वैसे भी साहेब किसी की सुनते कहाँ हैं. वो कभी बड़े बड़े वैज्ञानिकों को ए स्क्वायर प्लस बी स्क्वायर का क्या बनता है, इस समीकरण के गूढ़ अर्थ समझाते हैं तो कभी फाइटर पायलटों को बताने लगते हैं कि जहाज़ कैसे उड़ाना है. डाक्टरों को शल्य चिकित्सा का इतिहास उनसे ही पता चला. वो अपनी कहते हैं किसी की सुनते नहीं।

उन्हें हर जगह ऐसा आदमी चाहिए जो बहस न करे, जो कहा जाये आँख बंद करके कर दे. इसीलिये रिज़र्व बैंक में हिस्ट्री के एमए शक्ति कांत दास को गवर्नर बनाया गया। वो भी आईएएस से हैं।

अमिताभ के बारे में आप जान ही रहे हैं। हालाँकि वो जेएनयू से इकोनॉमिक्स में एमए हैं लेकिन पिछले चालीस साल से उन्होंने अर्थनीति से जुड़ा कोई काम नहीं किया. अब वो कह रहे है कि हमारे श्रम कानून विकास विरोधी हैं।

ऐसी स्थितियां ही नोटबंदी जैसे ऊटपटांग फैसलों को जन्म देती हैं…

लेकिन तब की बात और थी। अब अगर कोविड- १९ से उभरने की रणनीति में नोटबंदी टाइप कोई ऊटपटांग फैसला हुआ तो परिणाम नोटबंदी से कहीं ज़्यादा भयानक होंगे। टाइम पर रेलगाड़ियां न चलाकर क्या तबाही मची ये आप देख ही चुके हैं. अब जो करना है सोच समझ के और विशेषज्ञों से बात करके करना होगा।

देखिए न, एटक और सीटू ही नहीं संघ के अपने संगठन बीएमएस ने भी श्रम कानून स्थगित करने के निर्णय का विरोध किया है। अगर ये तीनों संगठन मिलकर सडकों पर उतर आये तो क्या होगा – आप खुद सोचिये।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *