वरिष्ठ पत्रकार प्रभात डबराल की कलम से
अब इस बात में किसी को कोई शक नहीं रहना चाहिए कि इस महामारी के दौरान हम शहरों में स्लम और अनधिकृत बस्तियों रह रहे लोगों – खासकर प्रवासी मज़दूरों की मदद करने मे विफल रहे है। गाँव के खेतमजदूरों और छोटी जोत वाले किसानों को भी मदद कम पहुँची, लेकिन इतना तो था कि वो कोरोना की चपेट से दूर रहे क्योंकि ये महामारी मूल रूप से बड़े लोगों की बीमारी है इसलिए दूर दराज़ के गाँवों के लोग इससे कम प्रभावित हुए।
कोई कुछ भी कहे, इसे नीति नियंताओं की अभिजातवर्गीय सोच का परिणाम माना जाना चाहिए। जिनके पास घर हैं उन्हें बचाने की फ़िक्र में वो लोग शहरी बेघरों को भूल गए। उन्हें उनके हाल पर छोड़ दिया गया। कल्पना कीजिये , आज के युग में भारत जैसे देश में हज़ारों नागरिक पैदल मार्च करके घर जा रहे हैं और उनमे से कई भूख, प्यास, बीमारी से मर भी गए।ये ट्रेन, ये बसें किसके लिए हैं- इन पर गरीबों का कोई हक़ नहीं है क्या।ध्यान रखिये कि पैदल घर जा रहे हज़ारों लोगों में से एक को भी कोरोना नहीं हुआ। पैदल नहीं निकलते, स्लम की भीड़भाड़ में रहते, तो हो जाता।
समस्या ये है कि नीतियों के केंद्र में गरीब है ही नहीं।उनके बारे में सोचने की न अक्ल है न इच्छा। अब कुछ दिन बाद जब लॉकड़ाऊन में छूट मिलेगी । ये समस्या एक नए रूप में फिर सामने आएगी। इन तथ्यों पर गौर कीजिये:
– देश की कुल दुकानों में से तीन चौथाई दुकाने ऐसी हैं जिन्हें मालिक खुद चलाता है कर्मचारी नहीं रखता।ये करीब चार करोड़ हैं। (आर्थिक सर्वेक्षण २०१३-१४ )
– करीब चालीस करोड़ लोग ऐसे संस्थानों में काम करते हैं जहाँ दस/ बीस से कम लोग काम करते हैं। ये संसथान बंद हैं । (श्रम शक्ति सर्वेक्षण)
– इन्हें फिर से शुरू करने के लिए लोन चाहियेगा । और बैंक इन्हें आसानी से लोन नहीं देंगे, अब तक तो नहीं ही देते थे। इन्हें लोन देने के लिए विशेष योजना बनानी पड़ती थी, फिर बनानी पड़ेंगी।
– जिन लोगों की नज़रें बड़े बड़े लोगों से नीचे नहीं उतरतीं, जो बेघरों के बारे में नहीं सोच पाए वो छोटे व्यापारों के बारे मैं कुछ सोच पायेंगे क्या?
-चवालीस करोड़ ज़िन्दगियों का सवाल है।
भाषण, जुमलेबाज़ी से काम नहीं चलेगा ठोस नीति बनानी होगी, अभी के अभी…