(सी एम पपनैं की कलम से)
नई दिल्ली। 13 जून प्रातः तीन बजे उत्तराखंड के सु-विख्यात लोकगायक व कवि हीरासिंह राणा का 78 वर्ष की उम्र मे दिल का दौरा पड़ने से आकस्मिक निधन हो गया था। अपने प्रिय आंचलिक लोकगायक व कवि के निधन व पंचतत्व मे विलीन होने की खबर सुन, दिल्ली प्रवास मे निवासरत उत्तराखंडियों व विभिन्न नगरों व उत्तराखंड मे बसे उत्तराखंडी जनमानस के मध्य, चंद घंटों मे ही दुःखद खबर पहुचते ही, मातम पसर गया था। उसी दिन प्रातः साढ़े दस बजे निगम बोध घाट यमुना किनारे पुत्र हिमांशू राणा ने पिता की चिता को मुखाग्नि दी।
भयावह कोरोना संक्रमण दहशत मे सरकारी दिशानिर्देशो की सख्ती के कारणवश दाह संस्कार मे निगम बोधघाट पहुचने वाले उत्तराखंड के चंद प्रबुद्ध जनों मे दिल्ली सरकार के भाषा अकादमी सचिव जीतराम भट्ट, धीरेन्द्र प्रताप, हरिपाल रावत, डॉ विनोद बछेती, चारु तिवारी, अनिल पंत, उदय ममगई राठी, मनोज चंदोला, दिनेश फुलारा, बृजमोहन उप्रेती, कुलदीप भंडारी, श्याम सिंह मनराल, प्रताप शाही, कुंदन सिंह बिष्ट, तेजपाल रावत व नीरज बवाड़ी इत्यादि ही प्रमुख लोगों मे शामिल थे। निगम बोध घाट मे सक्रिय सामाजिक संस्था उत्तरांचल भ्रात्रि सेवा संस्थान दिल्ली, मुखिया हरदा उत्तरांचली, मानवेन्द्र सिंह मनराल व दीपू रावत की पूरी टीम हर पल दाह संस्कार मे मुस्तैद रही।
दिल्ली में बढ़ते कोरोना विषाणु संक्रमण व सरकारी दिशानिर्देशो के आड़े आने से दिवंगत हीरासिंह राणा के हजारों प्रशंसक, मित्र और शागिर्द उनके अंतिम दर्शन व शव यात्रा में शिरकत न कर सकने के कारणवश मायूस हो, उपलब्ध डिजिटल माध्यम से देश के नगरों, महानगरों, कस्बो व ग्रामीण क्षेत्रो मे निवासरत अपने परिचितों को अपने प्रिय गायक व कवि की निधन की दुःखद खबर से अवगत करा, शोक मे डूबे रहे। उत्तराखंड की दर्जनों सांस्कृतिक व सामाजिक संस्थाओं के साथ-साथ पक्ष-विपक्ष से जुड़े राजनैतिक दलों से जुड़े लोगों द्वारा व्हाट्सप ग्रुप, फेसबुक, ट्यूटर, इंस्टाग्राम इत्यादि के द्वारा श्रद्धाजंलि के संदेश दिए जाने लगे।
श्रद्धाजंलि अर्पित करने वालों में उत्तराखण्ड राज्यपाल व मुख्यमंत्री क्रमशः बेबी रानी मौर्य व त्रिवेन्द्र सिंह रावत, महाराष्ट्र के राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी, भाजपा वरिष्ठ नेता डॉ मुरली मनोहर जोशी, पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत, सांसद अजय भट्ट, प्रदीप टम्टा, अजय टम्टा, विधायक डॉ इंदिरा हृदयेश, करन महरा, सुरेन्द्र सिंह जीना, महेश नेगी, वंशीधर भगत, पूर्व विधायक काशी सिंह ऐरी, पुष्पेश त्रिपाठी, मदन सिंह बिष्ट, गोबिंद सिंह कुंजवाल, मनोज तिवारी इत्यादि प्रमुख थे।
सामाजिक व सांस्कृतिक संस्थाओं से जुड़े प्रबुद्ध लोगों मे श्रद्धाजंलि अर्पित करने वालों मे नरेंद्र सिंह नेगी, किशन महिपाल, बिशन हरियाला, शिवदत्त पंत, जागर सम्राट प्रीतम भरतवाण व नैन नाथ रावल, बसंती बिष्ट, माया उपाध्याय, मधु बेरिया शाह, पर्वतीय कला केंद्र के दिवान सिंह बजेली व चंद्रमोहन पपनैं, ‘पहाड़’ संस्था दिल्ली प्रमुख चंदन डांगी, गढ़वाल महासभा महासचिव पवन मैठाणी, सार्वभौमिक संस्था अध्यक्ष अजय सिंह बिष्ट, उत्तराखंड फिल्म एवं नाट्य संस्थान अध्यक्षा संयोगिता ध्यानी, साथी संस्था अध्यक्ष राजेन्द्र बिष्ट, हाई हिलर्स ग्रुप अध्यक्ष खुशाल सिंह बिष्ट, उत्तराखंड चिंतन दिल्ली अध्यक्ष एस पी गौण, अंतरराष्ट्रीय ब्राह्मण सभा उपाध्यक्ष के सी पांडे तथा मानिला विकास समिति व उत्तरांचल युवा परिषद पंचकुला इत्यादि प्रमुख थे।
हीरासिंह राणा के गृह क्षेत्र मानिला मे निधन की सूचना मिलते ही बड़ी तादात मे ग्रामवासीयों, क्षेत्र के समाज सेवियों ने इकठ्ठा हो, स्थानीय रामलीला मैदान मे जी एस चौहान, उर्बादत्त लखचौरा, काम सिंह भाकुनी, गुसाई सिंह इत्यादि की उपस्थिति में शोकसभा आयोजित कर दिवंगत हीरासिंह राणा के चित्र पर फूल मालाऐ अर्पित कर श्रद्धासुमन अर्पित किए।
हीरा सिंह राणा की बेमिशाल गायन व कविता वाचन शैली, रचनाशीलता, दिल्ली प्रवास मे उत्तराखंड के प्रवासरत प्रवासियो के मध्य स्थापित ख्याति, सरल व मृदु स्वभाव तथा सांस्कृतिक क्षेत्र मे छह दशको की भागम-भाग व सक्रियता को देख दिल्ली सरकार ने उन्हे विगत माह अक्टूबर 2019 मे उत्तराखंडी लोकभाषा व संस्कृति को बढ़ावा देने के लिए कुमांउनी, गढ़वाली व जौनसारी भाषा अकादमी का पहला उपाध्यक्ष बनाया था। माह फरवरी 2020 मे भारत सरकार द्वारा उन्हे संगीत नाटक अकादमी का सलाहकार नियुक्त किया गया था। निगम बोध घाट दिल्ली में सक्रिय सामाजिक संस्था उत्तरांचल भ्रात्रि सेवा संस्थान के वे संस्थापक संरक्षको मे थे।
हीरासिंह राणा को कुमांउनी, गढ़वाली व जौनसारी भाषा अकादमी का उपाध्यक्ष बनाए जाने के बाद उत्तराखंड के सांस्कृतिक, साहित्यिक व अन्य लोक कला की विधाओ से सबद्ध कार्यक्रमो का बृहद तौर पर आयोजन करने के साथ-साथ उनका संवर्धन व संरक्षण होने की संभावना बढ़ गई थी। कुछ माह पूर्व एक भव्य सांस्कृतिक आयोजन दिल्ली कनॉट प्लेस के सेंट्रल पार्क में आयोजित भी किया जा चुका था।
हीरासिंह राणा को देश भर मे स्थापित प्रवासी सामाजिक व सांस्कृतिक संस्थाओं द्वारा विभिन्न अनगिनत सम्मानों से नवाजा गया था। विभिन्न अवसरों पर उनके सम्मान मे भव्य समारोह भी आयोजित किए जाते रहे थे। वर्ष 2003 मे उत्तराखंड क्लब दिल्ली द्वारा उन्हे ‘उत्तराखंड गौरव’ सम्मान से। 6 जून 2004 को अल्मोड़ा मे ‘मोहन उप्रेती लोक संस्कृति पुरूष्कार’ से। 16 सितम्बर 2018 को दिल्ली के आईटीओ स्थित हिंदी भवन मे उत्तराखंड की शीर्ष संस्थाओं मे शुमार ‘पहाड़’ व अन्य संस्थाओं द्वारा हीरासिंह राणा की हीरक जयंती पर भव्य समारोह आयोजित कर उन्हे ‘गीत व संगीत के 75 साल’ प्रशस्ति पत्र प्रदान किया गया था। 29 जनवरी 2020 को राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त पर्वतीय कला केंद्र द्वारा स्वर्ण जयंती समारोह मे सम्मानित किया गया था। 16 सितम्बर को पश्चिमी विनोदनगर दिल्ली मे हीरासिंह राणा का 77वा जयंती समारोह ‘लोक संस्कृति सम्मान दिवस’ के रूप मे बड़े धूमधाम से मनाया गया था।
25 दिसंबर 2019 को ‘बिजनिस उत्तरायणी’ द्वारा हीरासिंह राणा के पैतृक गांव स्थित पी जी कालेज मानिला मे आयोजित सेमिनार मे हीरासिंह राणा को दिल्ली सरकार द्वारा भाषा अकादमी का उपाध्यक्ष बनाए जाने के बाद पहली बार गृह क्षेत्र आगमन पर स्थानीय संस्थाओं, ग्रामीणों व ग्राम पंचायत सदस्यों द्वारा भव्य स्वागत किया गया था। उत्तराखड की लोक संस्कृति व बोली-भाषा को बचाने व स्मृद्ध करने के लिए हीरासिंह राणा द्वारा आजीवन किए गए कार्यो का जिक्र कर, सराहना की गई थी।
उक्त सेमिनार में उद्यम विकास की संभावनाओ पर राणा जी द्वारा सारगर्भित महत्वपूर्ण विचार रखे गए थे, जो उनके गृहक्षेत्र सहित समस्त उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्र के अनुकूल थे। उक्त सेमिनार में राणा जी ने मानिला मे लोककला एवं कुमांऊनी-गढ़वाली साहित्य अकादमी स्थापना की अपनी अंतिम इच्छया व्यक्त की थी। सभागार में उपस्थित प्रबुद्ध जनों की फरमाइश पर कालेज प्रिंसिपल डॉ ललिता प्रकाश शर्मा की उपस्थिति मे राणा जी द्वारा अनेक लोकगीत भी गाए गए। माह दिसंबर 2019 मे आयोजित ‘मानिला उद्यम विकास मीट’ यात्रा हीरासिंह राणा की अपने गृहक्षेत्र की अंतिम यात्रा साबित हुई।
दिवंगत हीरासिंह राणा की पत्नी श्रीमती बिमला राणा द्वारा दी गई सूचनानुसार दिनांक 23 जून को विनोद नगर (मंडावली) स्थित दुर्गा मंदिर में पीपल पानी की रश्म अदायगी, सरकारी दिशानिर्देशो का पालन कर, सीमित दायरे मे पूर्ण की जाएगी।
दिवंगत हीरा सिंह राणा के कृतित्व व व्यक्तित्व का अवलोकन कर ज्ञात होता है, इस लोकगायक ने अपने सरोकारों को अपने गीतों मे रच कर उत्तराखंड के लोक साहित्य व लोक गायन पर अपनी सृजनशीलता लगातार बनाए रखी। अपने मधुर कंठ के गायन व हुड़का वादन से लोगो को रिझाया, जिसे सुनने को लोग सदा ललाइत रहे। श्रोताओं ने जब भी जिस गीत को गाने की फरमाइश की, सहर्ष गाया। यह धारणा इस लोकगायक को एक जनगायक की प्रसिद्धि की ओर ले गई। चेतना जगाकर संवेदनाओ को कविताओं व गीतों मे उतार कर, निराले प्रभावशाली अंदाज मे प्रस्तुत कर, समाज के प्रत्येक वर्ग को झकझोरना, जिनमे दुःख, दर्द, संघर्ष व पलायन की पीड़ा के साथ-साथ सौन्दर्य भी समाया हुआ रहा, इस रचियता की रचनाशीलता की ताकत के रूप मे चरितार्थ हुआ। रची रचनाओं मे गति प्रवाह व समुद्र की गहराई देखी गई। जन आंदोलनों मे स्वरचित क्रांतिकारी गीतों को गाकर राष्ट्रीय चेतना जगाने के कारण हीरासिंह राणा को राष्ट्रीय कवि के तौर पर आंक, हिंदी साहित्य की अमर विभुति का दर्जा हासिल हुआ था।
हीरासिंह राणा का जन्म 16 सितम्बर 1942 को अल्मोड़ा जिले स्थित डढूली (मानिला) के कृषक मोहन सिंह राणा के घर हुआ था। उनकी माता का नाम नारंगी देवी था। पिता के धार्मिक विचारों तथा रामायण व गीता का पिता द्वारा घर मे नित्य पाठ करने से हीरा सिंह राणा इस विधा से अछूते नहीं रहे। पिता से रामायण की चौपाइयों का ज्ञान अर्जित कर 1952 मे गांव मे आयोजित रामलीला मे शत्रुघ्न के पात्र की भूमिका का निर्वाह कर रिकार्ड इनाम अर्जित किया। यही से हीरा सिंह राणा के दिलो दिमाग में गायिकी की प्रेरणा जगी थी, वे कुमांऊनी लोकगीतों को गाने लगे थे। आठवी तक की पढ़ाई मानिला मे पूर्ण कर आजीविका हेतु वे दिल्ली को पलायन कर गए थे।
दिल्ली प्रवास मे प्रवासरत उत्तराखंड के पहाड़ियों के मध्य तत्कालीन कुमांऊनी गायक आनंद सिंह नेगी (कुमांऊनी) के साथ जुड़ हीरासिंह राणा को भारतरत्न स्व.पंडित गोबिंद बल्लभ पंत की पहली बरसी 7 मार्च 1962 को स्वरचित गीत ‘आलिली बाकरी’ गाने का अवसर मिला था। इस अवसर पर तत्कालीन रेलमंत्री लाल बहादुर शास्त्री भी मौजूद थे। बारह बकरियों को मंच पर खदेड़, हीरासिंह राणा ने उक्त गीत बड़े मनोभाव से गाया था। इस मधुर कंठी गीत व दृश्य को देख-सुन स्व.गोबिंद बल्लभ पंत की धर्मपत्नी रोने लगी थी। पुत्र के सी पंत भी भाव विह्वल हुए बिना नहीं रह सके थे।
1962-63 मे हीरासिंह राणा ने दिल्ली से मुंबई को प्रस्थान कर हिमालय पर्वतीय संघ से जुड़, घाटकोपर की जमीन के घेराव मे पहाड़ी होली के कार्यक्रम मंचित किए। षड्मुखानंद हाल में फिल्म अभिनेत्री आशा पारिख के नृत्य कार्यक्रम के साथ उत्तराखंड के लोकगीत गाए।
1966 मे गीत व नाटक प्रभाग की स्थापना नैनीताल में हुई थी। जिस हेतु दिल्ली प्रगति मैदान मे विभाग के कलाकारों के चयन मे हीरा सिंह राणा का चयन स्थाई कलाकार के नाते किया गया। नाटक प्रभाग मे मन नही लगने से वे नैनीताल से दिल्ली लौट आए थे। दिल्ली मे उनकी मुलाकात सु-विख्यात लोकगायक व रंगमंच संगीत निर्देशक मोहन उप्रेती से हुई। 1968 मे स्थापित पर्वतीय कला केंद्र के साथ हीरासिंह राणा बतौर एक गायक के नाते जुड़े। डीसीएम मे तथा उपराष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद की मौजूदगी मे पर्वतीय कला केंद्र द्वारा मंचित कार्यक्रमो मे हीरासिंह राणा ने अपनी खनकती आंचलिक गायकी व हुड़के का जलवा बिखेर प्रसिद्धि हासिल की थी।
1973-74 मे तत्कालीन दिल्ली नगर निगम कमिश्नर बी आर टम्टा की सलाह पर दिल्ली से हाईस्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण कर हीरासिंह राणा नगर निगम की सरकारी नोकरी मे लग गए थे। मन नही रमने से दूसरी सरकारी नोकरी भी छोड़ दी थी।
जमाने के बदलते मिजाज पर गीत और कविताऐं रचने वाले हीरासिंह राणा ने शिवदत्त पपनैं के सानिध्य में 1981 मे सांस्कृतिक संस्था ‘नव युवक केंद्र ताडीखेत’ की नींव रखी थी। गीत एवं नाटक प्रभाग के दिशानिर्देशो के तहत समस्त उत्तराखंड का दौरा कर, एकल तथा सामूहिक कार्यक्रम मंचित किए। पहाड़ के पारंपरिक कौतिकों से लेकर आकाशवाणी नजीबाबाद, लखनऊ, गोरखपुर व अल्मोड़ा तक मे अपनी स्वर लहरियों से समा बांधा। उत्तराखंड मे एक लोक गायक व रचनाधर्मी का जीवन जिया। हजारों गीतों के कार्यक्रम मंचित किए। कभी- कभार शौकिया तौर पर प्रयोग के नाते गढ़वाली गीत भी गाए।
दिल्ली मे प्रवासरत रहते हुए भी उनका कवि मन अपने मूल गांव मानिला व उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्र के जनजीवन के हालातों मे ही डूबा रहा। इसी मनोभाव वे रचनाऐं रच, उन्हे प्रभावशाली अंदाज मे जनमानस के मध्य गा-बजा लोगों को अपनी ओर रिझाते रहे, लुभाते रहे, ख्याति के शिखर पर चढ़ते चले गए। ‘कैले बजे मुरली’ गीत रचना के बाद हीरा सिंह राणा ने ‘लस्का कमर’ गीत की रचना कर उसे पहली बार दिल्ली के फाइन आर्ट्स के खचाखच भरे सभागार में प्रस्तुत कर, अपार ख्याति अर्जित की थी। रचित रचनाओं व उनके प्रभावशाली गायन-वादन पर मिल रही सफलताओं व जन भावनाओं से हीरासिंह राणा को बल मिलता चला गया।मेरी मानिले डानि, मैं त्येरी बल्याई ल्यूला, रंगीली बिंदी घाघरी काई, सौ मनों की चोरा, रंगदार मुखड़ी, हाई कमाल, अहारे जमाना, त्येरी आंखि नामक एल्बम, कैसिटो व यूट्यूब मे अपने प्रशंसकों के बल, गायकी की भरमार लगाते चले गए।
दिवंगत सु-विख्यात लोकगायक राणा जी की कुछ पुस्तके भी प्रकाशित हुई, जनमे 1971 मे प्योली और बुरांश नाम से काव्य।1985 मे काव्यात्मक गाथा ‘मानिले डानि’ तथा 1987 मे ‘मनख्यु पड्यौव’ मुख्य थी। ‘स्वतंत्रता संग्राम में उत्तराखंड का योगदान’ नाम से हीरासिंह राणा द्वारा गीत नाट्य की रचना की गई। देश की आजादी के स्वर्ण जयंती वर्ष के अवसर पर 65 कलाकारों के सहयोग से उक्त गीत-नाट्य के अनेकों कार्यक्रम ‘हिमांगम कला संगम’ संस्था के बैनर पर विभिन्न नगरों मे मंचित किए गए। 2014 मे चारु तिवारी द्वारा हीरा सिंह राणा की संघर्ष गाथा पर पुस्तक ‘संघर्षो का राही’ नाम से प्रकाशित की गई।
सादगीपूर्ण व्यक्तित्व, बेहद गरीबी से जूझ कर अपने आंचलिक गीतों व गायकी को शिखर तक पहुचाने वाले व रचित गीतों के भावो से जनमानस को झकझोर कर रख देने वाले, दिवंगत हीरासिंह राणा, जनसरोकारों को समर्पित लोककवि, गायक व रचनाकार थे। आंचलिक गायकी के क्षेत्र मे उन्होंने ऊंचा मुकाम हासिल किया था। उन्होंने लोगों को सिखाया था, लोकगीतों मे साहित्य जैसी भी कोई चीज होती है। कविता, अलंकार व व्याकरण के धरातल का लोक भी होता है।
अपने दिल की व्यथा-वेदना से प्रकट शब्दो को गीत तक पहुचाने वाले दिवंगत हीरा सिंह राणा की रचनाओं में समाज की पीड़ा बहुत गहराई तक पैठी हुई रही। सामाजिक सरोकारों से जुड़े आंदोलनों के साथ-साथ भाषा आंदोलन में भी जीवनभर वे संघर्षरत रहे। राजधानी गैरसैण के वे प्रारम्भ से समर्थक रहे। अपने स्वरचित गीतों को खनकती आवाज मे गा-बजा कर सदैव आंदोलनकारियों मे जोश व ताजगी भर, प्रेरणा श्रोत बने रहे। कुमांऊनी बोली मे काव्य पाठ करने का उनका अनोखा अंदाज, सदा बयां किया जाता रहा। उत्तराखंड की संस्कृति, संस्कारों और जनजीवन को अपनी रचनाओं और अपने सुरों मे पिरो कर उत्तराखंड की लोकसंस्कृति और परंपराओं के संरक्षक व संवर्धन के लिए आजीवन अमिट कार्य करने मे व्यस्थ रहने वाले, हीरा सिंह राणा का अक्समात इस लोक को अलविदा कह, अनंत यात्रा पर चले जाना, उत्तराखंडी आंचलिक रंगमंच, गीत-संगीत तथा संस्कृति प्रेमियों के लिए अति दुखदायी रहा।
अपनी रचनाओं के माध्यम से लोगो को जीवन के उतार-चढ़ाव के रास्तों से अवगत करा, उन्हे संघर्ष करने की सीख प्रदान करने वाले, साथ ही रास्ता सुझाने वाले, दिवंगत हीरासिंह राणा को एक मिशाल के रूप मे ही याद नही किया जायेगा, बल्कि यह सब इस लोकगायक व रचयिता की प्रसिद्धि व खासियत के रूप मे चर्चा का विषय पीढ़ी दर पीढ़ी बना रहेगा। श्रोताओं के मध्य इस रचनाकार की रचना व बेमिशाल गायन विधा की कला को कोई नही भुला पायेगा। उनके गीतों व रचनाओं को उनके परम शिष्यों के श्रीमुख से सुन, भविष्य मे भी प्रवासी लोगों को गांव की याद आती रहेगी, उन्हे अपनी जडों से मिलने का अवसर मिलता रहेगा, दिवंगत हीरासिंह राणा के रचे गीतों व कविताओं के माध्यम से, युग-युगान्तर तक।