रिष्ठ पत्रकार गिरिजेश वशिष्ठ की कलम से
हैदराबाद केस में रेप के चार आरोपियों को गोली से उड़ा देने की घटना को ये कहकर सही ठहराया जा रहा है कि भारत के न्यायालयों में न्याय में देरी होती है. सस्ता और शीघ्र न्याय नहीं मिल पाता. जज मनमर्जी से काम करते हैं बिलावजह तारीख दे देते हैं और मुकदमा खिंचता जाता है. कुछ लोग कहते हैं कि भारत का कानून ही खराब है.
कुछ लोग तो यहां तक कह रहे हैं कि हैदराबाद जैसा न्याय ही सही है. अदालतों के चक्कर में कभी नतीजा नहीं निकलता.आप तो अपनी बात कह सकते हैं नेता भी कह सकते हैं लेकिन अदालतें तो मीडिया में नहीं जा सकतीं. ऐसे में हमारी जिम्मेदारी बढ़ जाती है कि अदालतों का पक्ष भी जानें. शायद पता चले कि देरी के पीछे जज उतने जिम्मेदार नहीं जितनी सरकार है.
अदालतों पर इसलिए बढ़ रहा है बोझ
मैं आपको थोड़ा पीछे ले जाना चाहूंगा. आपको बताना चाहूंगा कि अदालतों के पांव में क्या सचमुच कानून की बेड़ियां हैं या कोई और वजह. एक छोटी सी जानकारी आपका विचार बदल सकती है. आप जानते हैं कि भारत में उच्च न्यायिक सेवा में 22033 में से 5133 पद खाली है. यानी करीब 25 फीसदी हैं. यानी तीन केस में सुनवाई होगी तो चौथे में तारीख मिलेगी क्योंकि कोई और रास्ता ही नहीं है. अदालतों की क्षमता पहले ही कम है. बढ़ाने के लिए काफी सिफारिशें भी हो चुकी हैं. वो तो बढ़ नहीं रही. ऊपर से जो पद हैं वो भी खाली पड़े हैं भारत के चीफ जस्टिस तरुण गोगोई ने अपना कार्यकाल संभालते ही हायर ज्यूडिशियरी यानी उच्च न्यायिक सेवा के इन पदों को लेकर सरकार को नोटिस दिया था.
इसके लिए उन्होंने 4 जनवरी 2007 के आदेश का भी जिक्र किया जिसमें भर्ती के लिए हर चरण की एक समय सीमा तय की गई थी. लेकिन कुछ हुआ नहीं. निचली अदालतों का हाल इससे भी खराब है. पिछले साल मार्च में ही सरकार ने संसद में बताया था कि देश भर की अदालतों में ढाई करोड़ मुकदमे लंबित है और करीब 6 हज़ार पद खाली हैं.
ऐसे न्याय में सरकार की तरफ से होती है देरी
अगर इस कमी को दरकिनार भी कर दें तो अदालतों में मुकदमा जाने के बावजूद सबसे ज्यादा देरी सरकार की तरफ से ही होती है. आपको याद होगा कि कन्हैया कुमार की चार्जशीट को दायर करने में दिल्ली सरकार लगातार ना नुकुर कर रही है. अदालत कई बार सख्ती से कह चुकी है कि आप चार्जशीट दाखिल करोगे या नहीं. लेकिन मामला लटका है.
कन्हैया कुमार तो जमानत पर है फूलन देवी साढ़े 11 साल तक जेल में रही उसे मध्यप्रदेश सरकार से राहत भी मिल चुकी थी लेकिन इतने समय तक यूपी सरकार ने चार्जशीट तक दाखिल नहीं की . इस देरी पर अदालत क्या करें. आप 11 साल तक मुकदमा लटका रहे हैं. कोर्ट नहीं. अगर मुलायम सिंह सरकार ने मुकदमे वापस नहीं लिए होते तो फूलन पता नहीं कितने साल मुकदमा झेलती और उसके बाद भी सज़ अलग से.
निर्भया केस को ही लें. सिर्फ 9 महीने में निर्भया के आरोपियों को फांसी की सजा सुना दी गई थी. हाईकोर्ट ने मामले पर सुनवाई से इनकार कर दियाय यानी उसने शून्य समय इस मामले पर सुनवाई में लिया. मामला सुप्रीम कोर्ट में पहुंचा. दिल्ली पुलिस ने मामले की जल्द सुनवाई की अर्जी ही नहीं डाली. डेढ़ साल तक मामले की सामान्य केस की तरह तारीख लगती रही . निर्भया के माता पिता ने कहा कि पुलिस ढिलाई बरत रही है. हम को भी केस में पार्टी बनाया जाए. तब दिल्ली पुलिस को नोटिस भेजा गया. इसके बाद केस की हफ्ते में दो दिन सुनवाई पक्की हुई और सुप्रीम कोर्ट ने बचे हुए तीन आरोपियों की फांसी पर मुहर लगा दी.
अब फांसी लगाने में जेल प्रशासन ने दो साल लगा दिए. हारकर निर्भया के परिवार वालों ने भागदौड की तो जेल प्रशासन ने आरोपियों को नोटिस दिया. कहा कि आप दया याचिका दायर करो वरना फांसी चढ़ा देंगे. ये नोटिस दो साल पहले भी दिया जा सकता था. इस नोटिस के बाद एक दया याचिका आई. जिसे झटपट दिल्ली सरकार और केन्द्र सरकार ने ठुकरा दिया. मामला अब राष्ट्रपति के पास है. यानी सात साल में साढ़े तीन साल अदालत ने नहीं सरकार ने बरबाद किए.
सस्ता और शीघ्र न्याय भारत में बहुत पुरानी समस्या है. करीब 30 साल से तो इस पर चिंतन मैं अपनी आंखों से देखता आ रहा हूं. हाल ही में भारत के राष्ट्रपति ने बयान दिया है कि भारत में हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में न्याय पाना आम आदमी के बस की बात नहीं है. जाहिर बात है सुधार की आवश्यकता है. कई कमेटियां बनीं हैं. कई आयोग बने हैं. सिफारिशें भी आई हैं लेकिन सरकार कुंडली जमाकर बैठी हुई है. ऐसे में न्याय में देरी का मतलब जजों की लापरवाही समझना घनघोर नादानी है और कुछ नहीं.