1980 के आसपास कभी अनुरागी जी से भेंट हुई थी. वहीं आकाशवाणी, लखनऊ में जो अपना साहित्यिक-सांस्कृतिक स्कूल और अड्डा था. अनुरागी जी संगीत विभाग के कार्यक्रम अधिकारी बन कर आये थे. संगीत उनकी रग-रग में था, उनके हंसने और रोने में था. वे इतना डूब कर गाते कि उनकी आंखों से अश्रुधार बहने लगती थी. धीरे-धीरे जाना कि गायन तो उनकी अद्वितीय प्रतिभा का अंश भर था. ‘ढोल सागर’ की उनकी समझ उल्लेखनीय थी. इस शास्त्र को जितना उन्होंने समझा उतना शायद और किसी ने नहीं. डा. शिवानन्द नौटियाल के शब्दों में “ढोल सागर ईश्वर-पार्वती-सम्वाद के रूप में लिखा गया ग्रंथ है. इस ग्रंथ के प्रथम भाग में सृष्टि की उत्पत्ति का विशद वर्णन मिलता है. दूसरे भाग में ढोल का वर्णन, उसकी उत्पत्ति तथा उसे बजाने की कला का प्रभावशाली वर्णन है.”
अनुरागी जी उस पर अपनी खास समझ के आधार पर बड़ा काम करना चाहते थे. उसकी व्याख्या, उसका विश्लेषण. उसके आधार पर उन्होंने तालों का सृजन किया था. इस बारे में कुछ लेख भी लिखे थे. बाकी वे सोचते ही रहे. वास्तव में, वे भावनाओं की लहरों पर बहते रहने वाले अत्यंत सरल इंसान थे, अनुशासनबद्ध संगीतकार या लेखक नहीं. तो भी एक काम उन्होंने ऐतिहासिक किया. उन्होंने कई गढ़वाली लोक गीतों की स्वर-लिपियां बनाईं और उनका लोक-शास्त्रीय अध्ययन किया. यह काम लोक संगीत को दस्तावेज़ी शास्त्र का दर्ज़ा देने जैसा है.
मैं उनके पीछे पड़ा रहता- ‘अनुरागी जी, अपना काम पूरा करिए. ढोल सागर पर काम होना ही चाहिए.’ वे गरदन हिलाते और ‘हां-हां’ कह कर टाल जाते. उनके मुंह में हमेशा पान का बीड़ा भरा रहता. अक्सर घुटकी भी लगी रहती. मैं उनके घर आने की ज़िद करता, वे टाल जाते, बहाना बनाते. एक बार मैं ज़िद करके उनके घर पहुंच गया. वे अत्यंत सादगी से रहते थे और खूब अव्यवस्थित भी. मेरी रट थी कि आप ढोल सागर पर लिखो, दिक्कत हो तो आप बोलो और मैं लिखता चलूंगा. मेरी ज़िद देख कर उन्होंने एक बक्से से निकाल कर करीब 40-50 पन्ने मुझे पकड़ा दिये. मुझे अपने घर से ज़ल्दी चलता करने के लिए ही शायद.
टाइप किये हुए वे पन्ने पढ़ कर मैं चकित रह गया. संगीत में मेरी कोई गति नहीं लेकिन इतना तो समझ ही गया कि यह ऐतिहासिक महत्व का काम है. उन पन्नों में गढ़वाली लोक गीतों की स्वर-लिपियां थीं, उनकी संरचना पर विद्वतापूर्ण टिप्पणियां, शास्त्रीय धुनों पर लोक धुनों का प्रभाव, आदि-आदि. फिर पता चला वे अंश उनकी अप्रकाशित पुस्तक ‘नाद नंदिनी’ की पाण्डुलिपि का हिस्सा थे.
सन 1991 में अनुरागी जी ने इस पाण्डुलिपि में अपना “प्राक्कथन” जोड़ा, जिसमें वे लिखते हैं- “लोक संगीत की स्वर-माधुरी जितनी अद्भुत है, उसकी ताल पद्धति उतनी ही विचित्र है. अत: पुस्तक के तृतीय अध्याय में मैंने गढ़वाली लोक-संगीत की ताल-पद्धति की विवेचना की है, साथ ही गढ़वाली लोक संगीत में उपयोग में आने वाली विशिष्ट प्राकृत तालों को समुचित बोल-बांटों में प्रस्तुत किया है. इसी खंड में गढ़वाली लोक-वाद्यों के स्वरूप का विवरण भी प्रस्तुत किया है.” सन 1993 में शिवानंद जी ने इस किताब में प्रस्तावना के रूप में अनुरागी जी और उनकी प्रतिभा पर लेख लिखा.
इस तरह 1958 में तैयार यह पाण्डुलिपि 38 साल बाद 1996 में छप सकी लेकिन तब अनुरागी जी अपनी किताब को प्रकाशित देखने के लिए जीवित नहीं थे. यह है हमारे यहां साहित्य-संगीत-कला के असल जानकारों के काम की इज़्ज़त और उनके सम्मान का हाल. पता नहीं “नाद-नंदिनी” की कितनी प्रतियां छपी होंगी और कहां धूल खा रही होंगी.
कुमार गंधर्व ने इस पुस्तक की ढाई पन्ने की भूमिका बहुत गद-गद हो कर लिखी है- “मैंने नाद-नंदिनी के कथ्य का तन्मयता से अनुशीलन किया है. इस श्लाघनीय रचना के माध्यम से लेखक ने पहाड़ की लोक-आत्मा के पावन संदेश को गढ़वाल की गिरि-कंदराओं में ही गूंजता न छोड़कर भारत के सुदूर कोनों तक भेजने का प्रयास किया है… मुझे आशा है कि नान-नंदिनी का गढ़वाल ही क्यों, इतर प्रदेशों के जिज्ञासु जन भी हृदय से स्वागत करेंगे.”
मगर आज इस किताब के बारे में और अनुरागी जी के बारे में उत्तराखण्ड ही में कितने लोग जानते हैं जबकि लोक संगीत के नाम पर कमाने-खाने का बड़ा धंधा उत्तराखण्ड और उसके बाहर भी खूब जोर-शोर से चल रहा है?
हां, अनुरागी जी में कुंठाएं थीं और उनका कारण हमारा यह समाज है. उनका जन्म 13 जनवरी, 1929 को पौड़ी गढ़वाल के ग्राम कुल्हाड़ में एक गरीब दलित परिवार में हुआ था. औजी या बाजगी परिवार में, जिन्हें ढोल बजाने के लिए तो मंदिरों से लेकर घरों तक बुलाया जाता था लेकिन उनके हिस्से में अनाज के कुछ दाने और अपमान व धिक्कार ही आते थे. गांव में प्राथमिक शिक्षा के साथ ही उन्होंने अपने ताऊ जी से ढोल-दमाऊं बजाना सीखा. संगीत सीखने की उनकी प्रतिभा गजब की थी. आगे की पढ़ाई के लिए वे लैंसडाउन और देहरादून गये लेकिन समाज में मिलते अपमान के बदले ढोल को इस तरह बजाते रहे कि उसे पी गये, उसे घोट लिया, वे उसके तालों-स्वरों में समा गए. ढोल से उन्होंने मुहब्बत की और उसी से अपना विद्रोह भी गुंजायमान किया.
हां, बजाते-बजाते अनुरागी जी खुद ढोल के भीतर चले जाते. वहां उनका अपना राज था जहां कोई अपमान, कोई सामाजिक उपेक्षा और कटूक्तियां नहीं थी. वहां सुरों, तालों और धुनों की परम मानवीय दुनिया थी. वहां सिर्फ संगीत था जो मनुष्यों में कोई भेद करना नहीं जानता. वे बोलने में हमेशा संकोच करते थे, घुटकी लगी होने पर भी खुल कर बोल नहीं पाते थे. ढोल ही था जो उन्हें और उनके ज्ञान को सर्वाधिक मुखर करता था, गुंजा देता उन्हें ढोल.
जब वे लखनऊ में ‘उत्तरायण’ के प्रोग्राम एक्जीक्यूटिव बनाए गए तो ‘जिज्ञासु’ जी के आग्रह पर उन्होंने कुमाऊंनी-गढ़वाली गीत गाने वाली लड़कियों को लोक धुनें सिखाना शुरू किया. ‘ग्वीराला फूल फुलि गे मेरा भिना, ग्वीराला लयड़ी फुलि गे…’ गीत की धुन सिखाते-सिखाते वे खुद गाने लगते और जब लड़कियां सही स्वर पकड़ लेतीं तो वे हारमोनियम को ढोल बना लेते और रोने लगते. आंखों से जार-जार आंसू बहते. लड़कियां हंसने लगतीं तो वे उनके सिर में हौले से टीप मारते…. उन दिनों हमारी संस्था ‘आंखर’ के कई कार्यक्रमों के लिए उन्होंने लोकगीतों की रिहर्सल कराई और खुद भी मंच से गाया. लखनऊ में ‘गढ़वाल संस्था’ के कुछ कार्यक्रमों में उन्होंने ढोल वादन पेश किया था. मेरे पूछने पर एक उन्होंने बताया था कि स्वतंत्रता और गणतंत्र दिवस से सबंधित कुछ कार्यक्रमों के दौरान दिल्ली में भी उन्होंने ढोल-वादन की प्रस्तुतियां दी थीं, जिनका आधार ढोल सागर था.
और, जब वे गाते तो गज़ब होती थी उनकी तान, आरोह-अवरोह. क्या गला था उनका! जब वे सुनाते- ‘रिद्धि को सुमिरूं, सिद्धि को सुमिरों, सुमिरों शारदा माई…’ तो हवा थम जाती और उसमें अनुरागी जी के स्वरों की विविध लहरियां उठने-गिरने लगतीं. बायां हाथ कान में लगा कर वे दाहिने हाथ को दूर कहीं अंतरिक्ष की तरफ खींचते और चढ़ती तान के साथ खुली हथेली से चक्का-सा चलाते, गोया निर्वात में पेण्टिंग बना रहे हों. मंद्र सप्तक से स्वर उठा कर जाने कब वे तार सप्तक जा पहुंचते और वहां कुछ देर विचरण करने के बाद कब वापस मंद्र तक आ जाते, पता ही नहीं चलता था. तब वे अपने ढोल के भीतर होते थे और बाकी दुनिया बाहर.
वे हमारे कुमार गंधर्व थे. वे देवास (मध्य प्रदेश) के उस महान गायक से कभी अनौपचारिक-सी दीक्षा भी ले आये थे. शिवानंद नौटियाल ने लिखा है कि “केशव अनुरागी का शिक्षा ग्रहण का तरीका एकलव्य जैसा था. कुमार गंधर्व की कला से प्रेरणा लेकर अनुरागी ने गढ़वाली लोक संगीत कुमार गंधर्व की शैली में सीखने का प्रयास किया. जब वे कुमार गंधर्व से मिले तो कुमार गंधर्व ने गढ़वाली लोक-संगीत की उनकी विशेष जानकारी को समझा और अत्यंत प्रसन्न होकर उन्हें आशीर्वाद दिया.” कुमार गंधर्व ने “नाद नंदिनी” की जैसी भूमिका लिखी है उससे स्पष्ट हो जाता है कि वे केशव अनुरागी की प्रतिभा से कितना प्रभावित थे.
“सल्लाम” गाने का उनका तरीका अनोखा ही था. दरअसल, यह लोक गायकी की सैद्वानी शैली है जिसके बारे में अनुरागी जी ने ‘नाद नंदिनी’ में बताया है- “जागरों में देवी-देवताओं के गीतों के अतिरिक्त हन्त्या अथवा घरभूतों के गीत (मृतात्मा की स्मृति में गाये जाने वाले गीत) सय्यदों की सैद्वानी यानी सय्यद-वाणी सम्मिलित है. सैद्वानी मुसलमानी पीर-पैगम्बर को रिझाने के लिए प्रस्तुत की जाती है. इसकी भाषा में फारसी शब्दावली का अधिक प्रभाव होता है अथवा यह उर्दू मिश्रित गढ़वाली होती है. गायन की शैली भी कव्वाली जैसी होती है.”
“पहाड़” के आठवें अंक में अनुरागी जी को शृद्धांजलि देते हुए गिर्दा ने लिखा था- “ … (लखनऊ में 1965 की शुरुआती मुलाकातों के बाद) आमना-सामना तो हुआ उनसे जनवरी 1974 को, आकाशवाणी लखनऊ द्वारा ‘उत्तरायण’ कार्यक्रम के लिए आयोजित ‘बसंत काव्य गोष्ठी’ में. फिर तो कई-कई बार सुना उन्हें. हुसैनगंज, लखनऊ की मधुशाला से लेकर जानी-मानी संगीत बैठकों में. सुर-ताल लिए वह जेब में घूमते थे. अभी इस कदर लड़खड़ा रहे हैं कि रिक्शे में बैठाना मुश्किल हो रहा है और अभी बाजा (हारमोनियम) सामने आया कि फिर देखिए और सुनिए आप केशव अनुरागी को. सुर छिड़ते ही सारा नशा काफूर, सारा ऐब गायब- सल्लाम वाले कुम/ बल, ओ बीवी फातिमा….”
इसी संस्मरण में गिर्दा ने एक और प्रसंग का जिक्र किया है जो संगीत के जानकारों में अनुरागी जी की गायन प्रवीणता के सम्मान का परिचायक है- “एक बार शेखर पाठक और मैं नजीबाबाद रेडियो स्टेशन गये थे. तब अनुरागी म्यूजिक सेक्शन देख रहे थे वहां का. हम तीनों जब रिसेप्शन में पहुंचे तो रिकॉर्डिंग के सिलसिले में कई जाने-माने संगीतज्ञ, कव्वाल वहां विराजमान थे. इंतजार था उन्हें अनुरागी का ही. दुआ-सलाम के बाद बात पर बात आई तो एक सज्जन ने कुछ इस तरह अपनी राय व्यक्त की उनके सुरीले कण्ठ बाबत- ‘जनाब, इनकी (अनुरागी की) क्या कहिए! ये जब अपने सधे कण्ठ की करामात दिखाते हैं तो फिजां में सुरों की महताबी रोशनी-सी लहरा देते हैं. खडज से तार तक हर सप्तक के सुरों की चमक एक सी होती हैं नपी-तुली. और, इनकी लोकगायकी! हम तो कव्वाल हैं जनाब, लेकिन फिदा हैं इनके सल्लाम वाले कुम पर. वाह, क्या कहने!’
अनुरागी जी जब तक लखनऊ रहे मैं हर मुलाकात में ‘‘ढोल सागर’ पर काम आगे बढ़ाने के लिए उन्हें उकसाता था. कभी-कभी कह देता था के आपके भीतर का सब ज्ञान आपके साथ ही चला जाएगा. सोचिए और उसे अगली पीढ़ियों के लिए यहीं रख जाइए. कभी वे हंस देते और कभी गरदन ऊपर-नीचे हिलाते हुए ‘हां-हां’ कह देते. उनका पीना बढ़ता गया और बड़ी कमजोरी बन गया. आकाशवाणी में अपने गायन-वादन के लिए लालायित बहुतेरे लोग उन्हें इस ओर और भी धकेलते गये. उनका काम अधूरा पड़ा रहा.
कुछ वर्ष बाद अनुरागी जी प्रोन्नति पर आकाशवाणी, गोरखपुर और फिर नज़ीबाबाद चले गए. उसके बाद एक-दो छोटी मुलाकातें ही हो पाईं. रिटायर होने के बाद वे अपने घर लौट गये. सुनते कि उनकी घुटकियां बहुत बढ़ गईं थीं. 1992 में जब वे टिहरी के अपने घर में बीमार थे तो शिवानंद नौटियाल ने उत्तर प्रदेश संगीत अकादमी के माध्यम से उनके ढोल वादन की वीडियो रिकॉर्डिंग करायी थी. नौटियाल जी ने लखनऊ में मुझे बताया था कि अनुरागी जी काफी अस्वस्थ थे. फिर भी चार दिन में उनसे थोड़ा-थोड़ा ढोल और हुड़की बजवाकर अच्छी रिकॉर्डिंग कर ली गयी. वह रिकॉर्डिंग अब पता नहीं संगीत अकादमी ने सम्भाल रखी है या ‘उत्तराखण्डी’ मामला समझ कर कहीं देहरादून की तरफ पठा दी है. सुरक्षित है भी, खुदा जाने.
21 मार्च 1993 को अनुरागी जी ढोल के भीतर ऐसे गये कि वहां से कभी वापस नहीं निकले. हां, कायदे का हो बजाने वाला तो ढोल आज भी अनुरागी जी के स्वर में गमकते हैं. सलाम वालेकुम, अनुरागी जी, सल्लाम!
(समकालीन जनमत से साभार: नवीन जोशी ‘हिन्दुस्तान’ समाचारपत्र के सम्पादक रह चुके हैं )