गढ़वाल-कुमाऊँ में घुघुती की छाप और चैत-बैसाख की बात

गढ़वाल-कुमाऊँ: घुघूती का महत्व देश के अन्य भागों में कितना है कह नहीं सकता किन्तु गढ़वाल-कुमाऊँ में घुघुती की छाप सबके मन में है. चैत-बैसाख की बात हो और घुघुती की बात न हो, ऐसा नहीं हो सकता. लोक संस्कृति या लोक गीतों की बात हो और घुघुती न हो, ऐसा भी नहीं हो सकता. घुघुती हमारे लोक में रच-बस गयी है, हमारी संस्कृति का अभिन्न अंग हो गयी है. हम घुघुती के बिना गांव की कल्पना नहीं कर सकते. घुघुती के बिना हम चैत-बैसाख की कल्पना भी नहीं कर सकते.

घुघुती के बिना खुदेड़ (विरह) गीतों की कल्पना करना भी बेमानी होगा. गांव याद आता है तो गांव में घुघुती स्वाभाविक रूप से याद आ जाती है. कभी ओखली के आस-पास, कभी चैक में, कभी छत की मुण्डेर पर और कभी आंगन किनारे हरे-भरे पेड़ों पर. दादी अक्सर एक लोरी सुनाया करती थी; ‘घुघूती, बासुती, क्य खान्दी, दूधभाती…’  उम्र आगे बढ़ी तो रेडियो पर ‘ना बास घुघुती चैत की, खुद लगीं च माँ मैत की..’  बजते इस गाने ने मन को मोहा है. पिछली सदी के आठवें दशक में गोेपाल बाबू गोस्वामी कुमाऊंनी गीतों के ध्वज वाहक थे. क्या खूब गला पाया था उन्होंने, सब तरफ उनके ही गीत बजते थे. शादी-ब्याह, शुभ कार्यों या किसी भी सरकारी, गैर सरकारी कार्यक्रमों में उनका यह गाना भी जरूर बजता था; ‘आमा की डायी मां घुघुती न बासा, घुघुती न बासा…’ किशोर मन पर ये गीत गहरी छाप छोड़ गये. गढ़ गौरव नरेन्द्र सिंह नेगी जी का जमाना आया तो उनके द्वारा रचा व गाया गया गीत भी मन को खूब भाया; ‘घुघुती घुराॅण लगीं म्यारा मैत की, बौड़ी-बौड़ी ऐगे ऋतु…’

भावों के कुशल चितेरे नेगी जी ने तो घुघुती की सुराहीदार सांकी (गर्दन) को उपमान बनाया है; ‘…कख बटि ल्है होली घुघुती सी सांकी, कख पायी होली स्या छुंयाल आँखी…’

आज जन-जन के दिलों पर राज करने वाले नये जमाने के गायक किशन महिपाल तो घुघुती वाले इस लोकगीत के साथ माणा से मुम्बई तक धूम मचाये हुये हैं; ‘किंगर का छाला घुघुती, पंगर का डाळा घुघूती, भै घुर घुराॅन्दि घुघुती, फुर उड़ाॅन्दि घुघुती…’

हिन्दी फिल्मों और हिन्दी साहित्य में भले ही कबूतर को पत्रवाहक के रूप में दिखाया जाता हो. परन्तु गढ़वाली-कुमाऊनी गीतों/साहित्य में घुघुती पत्रवाहक नहीं स्वयं सन्देशवाहक है; ‘…उड़ि जा ऐ घुघुती न्हैं जा लदाख, हाल म्यरा बतै दिया म्यारा स्वामी पास…’ हो या ‘मेरी प्यारी घुघुती जैली, मेरी माँजी तैं पूछि ऐली…’

घुघुती की याद हमें कभी नहीं बिसराती है. हिन्दी व गढ़वाली साहित्य की विभिन्न विधाओं पर सतत लेखन करने वाले लेखक देवेश जोशी ने अपनी एक किताब का नाम ही रख डाला है- ‘घुघुती ना बास’. इसी प्रकार सुदूर मुम्बई में बसी एक उत्तराखण्डी महिला ने अपने ब्लाॅग का नाम ‘घुघुती बासुती’ रखा है. जब मुम्बई में घुघुती याद आ जाती है तो देहरादून तो उत्तराखण्ड का दिल ही है. इसीलिये कूर्माचल सांस्कृतिक परिषद, देहरादून ने अपनी स्मारिका को ‘घुघुती’ नाम दिया है. कुमाऊँ में मकर सक्रान्ति पर हर साल ‘घुघुतिया त्यार’ मनाने की परम्परा है. (त्यार अर्थात त्यौहार. घुघुतिया त्यार के दिन कुमाऊँ के घर-घर में गुड़ व आटे की घुघुती बनाकर सरसों के तेल में तलकर चाव से खाया जाता है. वहाँ गांव में कुछ माँयें अपने नादान बच्चों को बहलाने के लिये छोटी-छोटी घुघुती बनाकर उसके बीच में एक छेद कर देती है. बच्चे इनको अपने गले में टांगकर घूमते हैं उस दिन.)

घुघुती क्या है? हिमालयी क्षेत्रों में पायी जाने वाली घुघुती वास्तव में कबूतर परिवार का ही पक्षी है. जो प्रायः भारतवर्ष ही नहीं पाकिस्तान के हिमालयी क्षेत्रों में भी पाया जाता है. हम इसे पहाड़ी कबूतर भी कह सकते हैं. परन्तु पहाड़ी कह देने से यह मतलब नहीं कि यह पहाड़ों के अलावा और कहीं नहीं पायी जाती. मैंने इसे भारतवर्ष के अनेकों प्रान्तों में देखा है. नाम भले ही अलग हो सकता है.

पंजाब में इसे ‘फाख्ता’ कहते हैं. कबूतर जहाँ प्रायः सफेद व सलेटी रंग के होते हैं. वहीं घुघुती उससे एकदम भिन्न ‘मटमैले’ रंग की होती है. यह प्रायः आबादी क्षेत्र के आस-पास ही पायी जाती है. परन्तु यह घोसला घरों में नहीं प्रायः पेड़ों की डाल पर या छोटी झाड़ियों के ऊपर बनाती है. पेड़ की शाखाओं पर या छत की मुण्डेर पर या किसी तार पर पर जब यह अकेली उदास सी बैठी होकर कुछ गाती है तो उसका उच्चारण ‘घु-घू-ती’ प्रतीत होता है जिससे इसका नाम ही पड़ गया है ‘घुघूती’.

आकार व रूप के आधार पर गढ़वाल में तीन प्रकार की घुघूती है. घुघूती जो आकार में सबसे बड़ी होती है और उसके गले में दो काली चूड़ी बनी होती है उसे हमारे इलाके में ‘माळया घुघुती’ कहते हैं. यह लगभग सिलेटी रंग के कबूतर के आकार की होती है. अंग्रेजी में इसे Eurasian Collared Dove कहते हैं. इसका जूलोजीकल नाम Streptopelia decaocto है.

‘माल्या’ घुघूती से थोड़ी छोटी व जिसकी गर्दन के पाश्र्व भाग तथा पीठ पर मसूर के आकार व रंग के असंख्य दाने से दिखायी देेते हैं, को हमारे इलाके में ‘मसुर्याली’ घुघूती कहलाती है. अंग्रेजी में इसे Spotted Dove कहते हैं. जबकि इसका जूलोजीकल नाम Stigmetopelia chinensis है.

‘मसुर्याली’ घुघुती के ही आकार की किन्तु सामान्य रंग वाली घुघुती ‘काठी’ घुघुती कहलाती है. अंग्रेजी में इसे Laughing Dove कहते हैं. और इसका जूलोजीकल नाम Stigmetopelia senegalensis है.

हम ठोस रूप से कह ही सकते हैं कि घुघुती हमारे लोकजीवन व जनमानस में कहीं बहुत गहरी छाप छोड़े हुये है. घुघुती की घूर, घूर हमें परदेश में भी उदास कर देती है. हम अक्सर भावुक हो जाते हैं. घर-गांव की याद सताने लगती है. अपने खेत-खलिहान याद आने लगते हैं. मन व्याकुल हो उठता है और कानों में सुनाई देती है; घुरू-ऊ-घू, घुरू-ऊ-घू… घु घू ती.

 

(लेखक शूरवीर रावत, प्रतापनगर से साभार )

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