फादर्स डे स्पेशल: पिता रूपी पौधे का फल होते हैं बेटे…

(वरिष्ठ पत्रकार कुमार विनोद की कलम से)

पिछले फादर्स डे पर पिता साथ थे तो चर्चा कुछ ऐसी निकल पड़ी थी। हर रविवार को दलान बाग के पौधों में घंटे दो घंटे रमा देख पापा बोले थे- “इतना केयर तो कोई बच्चे का भी नहीं करता बबुन! मिट्टी में सना हुआ देखकर अच्छा लग रहा है तुम्हें…!”
पापा खेती बाड़ी करते रहे हैं। फसल और पेड़ पौधों से जुडाव का उनका अंदाज पारंपरिक रहा है। इस काम में बदलाव तब आना शुरू हुआ जब 1992 में ग्रेजुएशन की पढ़ाई पूरी करने के बाद मैं सक्रिय रूप से जुट गया। एक साल के भीतर उनसे बड़ा किसान बन गया। अपने खेत के साथ कुछ पैदावार जमीन किराये पर लेने लगा। बैलों के साथ खेती में ट्रैक्टर और उन्नत खाद बीजों का इस्तेमाल‌। पूरा रंग ही बदल गया। आगे की पढ़ाई और कुछ प्रतियोगिता परीक्षाओं की तैयारी भी साथ साथ चल रही थी। कॉलेज क्लास के लिए आरा रहना कम कर दिया था। अब खेती बाड़ी और इसके साथ पढाई लिखाई यही जीवन का ढर्रा बन चुका था। मन ने अपनी नियति कुबूल कर ली थी। इसमें एक बात की खुशी होती थी। नाटे कद और दुबली पतली काठी (जिसके लिए उनका मजाक उड़ाया जाता था) वाले पापा बहुत ही खुश दिखने लगे थे। मतलब खेती बाड़ी के पूरे समाजशास्त्र और अर्थशास्त्र से बिल्कुल स्वतंत्र। उनकी भूमिका सिर्फ जानवरों की देखभाल, जरूरत के सामान और मजदूरों को बुलाने भर का काम। कई बार खेतों में खुद काम करने की नौबत आई, तो भी वो हाथ बंटाने वाले सहयोगी की तरह मौजूद होते। जैसे खेत पर खाना पानी लाना। बोझा सिर पर उठाने में मदद करना…
तब पापा कहा करते थे- बेटा जवान हो गया है,अब क्या टेंशन। एक ही है, लेकिन ११ को फेल करने वाला है…!
ये सब-कुछ 1997 में आईआईएमसी की पत्रकारिता वाला कोर्स करने के लिए दिल्ली आने के बाद तक चलता रहा। करीब दो तीन साल तक। जून जुलाई में (खेती का सीजन) १०-१२ दिन की छुट्टी पक्की होती थी। तब पापा 60 पार की उम्र में लीड करने लगे थे। ये अच्छा नहीं लगता था। और अब नौकरी करते हुए खेती को पहले की तरह प्लान करना मुझसे संभव भी न था। लेकिन उनकी दलील- “खेती नहीं करेंगे तो पूरे साल करेंगे क्या। ये सुहाग की तरह होता है बबुन। जब कुछ नहीं बचता, तो खेत में उम्मीद बोता है किसान। इसी के सहारे पूरा साल कटता है उसका…!’
बात सही थी,लिहाजा उनके साथ के लिए पूरे साल भर को लिए बनिहार (पूरे साल के लिए फिक्स मजदूर) रख दिया। खेती 2007-8 तक चलती रही। फिर वो बनिहार हटा और खेती बंद…
लेकिन मेरे मन से उस “उम्मीद” का मोह नहीं गया जो हर सीजन में नए बीजों के मिट्टी में अंकुरित होता है। पहले गमले, फिर एक घर के बाहर १० फीट की जमीन, फिर बालकनी और अब जवान बाग…
पापा पहले से सबकुछ तस्वीरों में देखकर खुश होते थे। दस साल बाद जब “दलान बाग” में ये सबकुछ लहलहाते देखा तो जैसे मेरा सारा ‘केयर’ उनके सामने साक्षात हो गया- खेती से लेकर उनकी कमजोरी तक कैसे ख्याल रखता था। कहता भी था उनसे कई बार, जब वो भारी काम करने के लिए वो खुद आगे बढ़ते थे- रहने दो पापा, बाप एक उम्र के बाद बेटा हो जाता है। आपसे नहीं होगा।
तब कैसे खिलखिला उठते थे पापा।
दलान बाग में शायद उसी खुशी के साथ कह रहे थे- पौधों का इतना केयर कोई पिता ही कर सकता है- अपने बच्चे की तरह।
आज टोकरी में ये सबकुछ देखकर पापा बरबस ही याद आ गए। उनकी भी उम्र ऐसे ही देखभाल की है। मगर क्या किया जाय। रिश्तों की राजनीति भी अपनी होती है। एक बार निजी समीकरण में कोई दूसरा घुस जाए तो फल कभी सही नहीं निकलता। ये मैथ्स का नियम है। अगर ये नहीं होता तो पापा आज दलान बाग को फल तोड रहे होते। ईश्वर उन्हें स्वस्थ रखे, संकट से बचाए रखे। पिता जीवन की आखिरी सांस की तरह होते हैं। मिलना देखते हैं कितनी देर बाद होता है।

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