देहरादून (कैलाश जोशी अकेला)। बात उन सतपाल महाराज से शुरू करते हैं जिनकी वजह से इस वक्त ‘सरकार’ को सबसे ज़्यादा बदनामी झेलनी पड़ रही है।
जी हां ये वही सतपाल महाराज हैं जो प्रदेश के महाराज बनने की हसरत पाले हुए थे और अब भी उनके दिल में राजा बनने की हसरत है। बात सियासत की है तो यहां बात भी सियासी दांव पेंचों की ही होगी।
दरअसल सतपाल महाराज कांग्रेस छोड़कर बीजेपी में विधायक या राज्य में कैबिनेट मंत्री बनने नहीं आये थे। विधायक तो कांग्रेस में उनकी पत्नी अमृता रावत रह ही चुकी हैं। मंत्री भी रह चुकी हैं। सतपाल कांग्रेस शासन में न सिर्फ सांसद रह चुके हैं बल्कि केंद्रीय मंत्री रहकर रेल पुरुष के तमगे से भी सुशोभित हो चुके हैं। तो भला सब समझ सकते हैं कि जो सतपाल पहले ही महाराज रह चुके हों उन्होंने बीजेपी जॉइन कर उत्तराखंड में भला मंत्री बनकर रहना था?
अब जरा सियासत को समझिए। दरअसल सतपाल महाराज आये थे राजा बनने। 2017 के चुनाव में बीजेपी का टिकट उन्होंने इसीलिए लिया और कांग्रेस में विद्रोह भी इसीलिए मचाया था। लेकिन पाशा कुछ उल्टा पड़ गया। अगर विधानसभा चुनाव में बीजेपी को कुछ कम सीटें मिलती तो महाराज के सिर ताज ज़रूर सजता। क्योंकि तब वे अपने धन बल से बीजेपी की रीढ़ बनते। लेकिन प्रचंड बहुमत ने तब महाराज को एक मंत्री पद पर ही मज़बूरी वाली संतुष्टि दे दी।
महाराज कब का मंत्री पद छोड़ देते लेकिन हसरतों ने ये ना करने दिया। अब तो चुनाव में बस 2 साल हैं और इंतज़ार इससे लंबा उनको भी नहीं भा रहा है। राजा बनने की चाह अब भी है। उम्मीद लगातार बनी है और उसके लिए दांव पेंच भी खूब खेले जा रहे हैं। लेकिन इन दांव पेंचों में प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री रह चुके बीजेपी के एक नेता जी कहीं अधिक प्रबल हैं। वे राजनीति के इस मैदान में फिर गोल दागने की फिराक में हैं।
वैसे महाराज प्रबल दावेदार पहले भी थे और अब भी हैं, लेकिन कोरोना की बदनामी ने उनपर इतना बड़ा दाग लगा दिया है कि बीजेपी के प्रदेश के नेता उनको किसी भी तरह अब सहन करने वाले नहीं हैं। इस दौर में भले ही वो अपने टारगेट यानी त्रिवेंद्र को फेल साबित करने की कोशिश में कामयाब तो हो रहे हैं लेकिन एक बड़े कांग्रेसी होने की पृष्ठभूमि भी उनके पैर घसीटने के लिए काफी है। तब की बात और थी जब मोदी और शाह नई राजनीति खेल रहे थे। हालांकि मोदी और शाह कब किस मोहरे से दांव खेलें ये कहा नहीं जा सकता लेकिन कोरोनाकाल में अधिकारियों और पार्टी नेताओं ने सीधेसादे और ईमानदार छवि वाले त्रिवेंद्र को जिस तरह फेल साबित करने का प्रपंच रचा उस से उस बीजेपी नेता की राह आसान होती दिख रही है जिसका जिक्र ऊपर मैंने किया। बाकी तो कोरोना का थोड़ा असर कम होने के बाद ही अब सियासी पारा चढ़ेगा।
यहां ये बताना जरूरी है कि त्रिवेंद्र कहीं से भी फेल नहीं हैं, उनको फेल साबित करने के पीछे कुछ अलग कुनबे के नेताओं, मंत्रियों और अफसरों की टोलियां हैं जिनके आका दूसरे भाजपाई नेता हैं। हां, इनमें कुछ अनपढ़ और अज्ञानी सलाहकार भी हैं जो मुख्यमंत्री को गलत दिशाहीन ज्ञान देते हैं। इस कुनबे के कुछ ज्ञानी और काबिल सलाहकारों को हाशिये पर धकेलना मुख्यमंत्री के लिए इस सियासी और कोरोना दोनों ही संकटकाल में महंगा साबित हो रहा है।
पत्रकार जिनकी डोर कुछ सियासतदानों के हाथ में है और कुछ वो जो सिर्फ अपना आर्थिक हित सर्वोपरि रखते हैं इनके गिरोह भी त्रिवेंद्र को इकतरफा फेल घोषित करने में लगे हैं। अब भला काजल की कोठरी है तो कालिख तो लगेगी लेकिन ‘सरकार’ दाएं बाएं तो आपने ही देखना है ना।