उत्तराखंड: पलायन  ‘व्यक्तिजनित’ नहीं ‘नीतिजनित’ है…

(वरिष्ठ पत्रकार चारू तिवारी की कलम से)
विश्वव्यापी कोरोना संकट के चलते पूरे देश में  लाॅक डाउन है। अभी इसे सामान्य होने में  समय लगेगा। इसके चलते सामान्य जन जीवन प्रभावित हुआ है। देश में नागरिकों  का एक बड़ा तबका है जो अपनी रोटी रोजगार के लिए देश के महानगरों या देश से बाहर रह रहा है। उसके सामने अब अपने जीवन यापन का संकट खड़ा हो गया है। स्वाभाविक रूप से उसका सबसे सुरक्षित ठिकाना अपना गांव-घर ही है। यही कारण है बड़ी संख्या में  शहरों से लोग अपने-अपने गांव जा रहे हैं। उत्तराखंड एक ऐसा राज्य है, जहां  से पिछले तीन-चार दशकों  से पलायन तेज हुआ है। राज्य बनने के दो दशक बाद तो यह रुकने की बजाय बढ़ा है। कोरोना के चलते बड़ी संख्या में लोग पहाड़ लौटे हैं। लोगों  को लगता है कि इसी बहाने लोग गांव में  रहने का मन बनायेंगे। सरकार भी इसे एक अवसर मान रही है। उत्तराखंड ग्राम विकास  एवं पलायन आयोग ने भी इन लोगों  के लिये गांव में ही रोजगार की बात कही है। मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र रावत जी ने तो गढ़वाली में  चिट्ठी लिखकर इसे और भावनात्मक बनाया। हालांकि यह भी लोगों  के साथ कम मजाक नहीं  है कि जो नीति-नियंता इन बीस सालों  में पलायन रोकने के लिए कोई  काम नहीं  कर पाये वे कोरोना में विकल्प खोज रहे हैं। नीति-नियंताओं की संवेदनाओं को इस बात से समझा जा सकता है कि वह ‘आपदा को अवसर’ मानते हैं। लेकिन अगर सरकार इस बारे में  सोच रही है तो उसने निश्चित रूप से होमवर्क किया होगा कि वह कैसे प्रवास से लौटे लोगों  को रोक सकती है।

कोरोना के बहाने कहां तक?

अगर सरकार गंभीरता से इस मसले पर सोच रही है तो यह अच्छा संकेत है कि जो काम राज्य बनने से पहले और राज्य बनने के बीस साल बाद नहीं  हो पाया वह एक बीमारी के बहाने हो जायेगा। कोई भी अच्छी पहल जब की जाये तब ठीक है। लेकिन जो सबसे बड़ा सवाल अभी भी है, वह नीतियों को लेकर है। इस मामले में उत्तराखंड के अनुभव अच्छे नहीं  रहे हैं। यहां विकास के नाम पर हमेशा माॅडल खड़े  किये जाते रहे हैं। सबके लिए हिमालय एक प्रयोगशाला के रूप में इस्तेमाल होता रहा है। विकास योजनाओं के केन्द्र में  गांव  और आदमी का न होना लगातार उसे शहरों  की ओर धकेलता रहा। हर गांव  तक सड़क  बन गई। हर सड़क आदमी को गांव से शहर की ओर ले गई। एक भी सड़क ऐसी नहीं बनी जो लोगों को शहर से गांव ला सके। अब भी अगर लोग गांव लौटे हैं  तो उन्हें सड़क नहीं, कोरोना लाई है। अगर इससे कोई अच्छी नीति बनती है तो अच्छा है।

पुराने अनुभवों से क्या सीखा ?
उत्तराखंड में पलायन पर बहस कोई नई बात नहीं  है। कोरोना के बहाने इस पर जब बात हो रही है तो सरकार ने निश्चित रूप से उसके लिये कोई रोड मैप भी जरूर तैयार किया होगा। उसमें  उन पुराने अनुभवों से सीखने की बात को भी ध्यान में रखना होगा। दरअसल, हमेशा प्रचारित किया जाता रहा है कि पलायन के लिए व्यक्ति जिम्मेदार है। इस बात को बहुत तरीके  से समझा  दिया गया है। यही वजह है कि जब दो जून की रोटी के लिए शहरों  में भटक रहे युवा बेरोजगारी के चलते अपने गांव वापस आये तो सब यही समझते हैं कि गांव छोड़ने के लिए वही जिम्मेदार  है। नीति-नियंता भले ही लोगों के लिये गांव रुकने की नीतियां न बना पाये हों, लेकिन अपनी कमजोरी को छुपाने के लिये जनता को जिम्मेदार ठहराने में सफल हुये हैं। राज्य से पलायन ‘व्यक्तिजनित’ नहीं,  बल्कि ‘नीतिजनित’ है। इसका समाधान नीतियों में  छुपा है। राज्य की समस्याएं जितनी बड़ी  दिखाई  दे रही हैं, उनके समाधान उतने ही छोटे हैं।

खेती का रकबा है कहां?

सरकार अभी गांव वापस आ रहे लोगों की बात कर रही है। वह जिस जगह इसका समाधान ढूंढ रही है वहां नहीं है। अभी पलायन आयोग ने वापस आये इन लोगों  के आलोक में जो बात कही है वह कृषि, पशुपालन, उद्यानीकरण, होम स्टे, पर्यटन को लेकर की है। उनका कहना है इन क्षेत्रों के विकास से इन लोगों  को रोजगार देकर रोका जा सकता है। असल में यह एक दिन या कुछ लोगों को लेकर बनाई जाने वाली नीति नहीं  हो सकती। पहाड़ में सबसे बड़ा सवाल तो जमीन का ही है। विशेषकर खेती की जमीन का। राज्य में कृषि योग्य जमीन का रकवा लगातार  घटा है। इसे समझने के लिये अखिल भारतीय किसान महासभा के अध्यक्ष पुरुषोत्तम शर्मा की पुस्तिका ‘कृषि की उपेक्षा से बढ़ता पलायन’ बहुत उपयोगी है। इसके अनुसार राज्य में  मौजूदा समय में  मात्र 4 प्रतिशत भूमि पर खेती हो रही है। अधिकतम 6 प्रतिशत खेती योग्य जमीन  बची है। अगर एक आंकड़े पर मोटामोटी नजर दौड़ायें तो राज्य के पास कुल भूमि का रकवा 5592361 हैक्टेयर है। जिसमें 88 प्रतिशत पर्वतीय और 12 प्रतिशत मैदानी भू-भाग है। इसमें  3498447 हैक्टेयर वन भूमि  है। कृषि भूमि मात्र 831225 हैक्टेयर है। बेनाप और बंजर भूमि 1015041हैक्टेयर है। अयोग्य श्रेणी की भूमि 294756 हैक्टेयर है। अगर इसे प्रतिशत में  देखें  तो कुल भूमि का 63 प्रतिशत वन, 14 प्रतिशत कृषि, 18 प्रतिशत बेनाप-बंजर और 5 प्रतिशत बेकार अथवा अयोग्य  जमीन  है।

पहाड़ में जमीन की हकीकत तो देखिए..

जमीनों के ये आंकड़े 1958-64 के बंदोबस्त के हैं। अंग्रेजों ने यहां 11 बार पैमाइश कराई थी। उनके जाने के बाद यह आधी-अधूरी पैमाइश हुई थी, जिसके आंकड़ों से ही फिलहाल हम जमीनों के सवाल को समझ सकते हैं। इसके  बाद जब 1960 में  कुमाऊं उत्तराखंड जमींदारी विनाश एवं भूमि सुधार कानून (कूजा एक्ट) आया तो इसने खेती के विस्तार के सारे रास्ते रोक दिये। इस कानून के तहत सारे विकास कार्यों के लिये किसानों की नाप भूमि निःशुल्क सरकार को देने की शर्त लगा  दी। उसने बड़ी  तेजी के साथ यहां  की खेती योग्य  जमीन  को लीलना शुरू किया। उसका परिणाम यह हुआ कि राज्य की 7 प्रतिशत से ज्यादा कृषि  योग्य  जमीन  सरकार के खाते में  चली गई है। शहरों, कस्बों और सड़कों के का 50 से 200 गुना तक जो विस्तार हुआ वह भी कृषि भूमि पर ही हुआ। बड़ी बांध परियोजनाओं में नदी-घाटियों की बड़ी जमीनें गई हैं। सिर्फ टिहरी बांध परियोजना पर ही कुल कृषि भूमि का 1.50 प्रतिशत हिस्सा चला गया। अब पंचेश्वर  बांध परियोजना में 134 गांवों की जमीनों पर खतरा मंडराने लगा है। राष्ट्रीय पार्कों, वन विहारों के विस्तार से लोगों  को उनकी जमीन से अलग किया गया है। वर्ष 2010 से आई आपदाओं के  चलते 233 गांव पुनर्वास की बाट जोह रहे हैं। सरकार के पास इनके लिए एक इंच जमीन नहीं है।

खेती से क्या रोजगार मिल पाएगा?

सरकार जब कह रही है कि वह लोगों को खेती के साथ जोड़कर रोजगार देगी तो उसने निश्चित रूप से इस पर विचार  किया होगा। यह बात इसलिए भी समझना जरूरी है कि सरकार ने पहाड़ में खेती की जमीन को बचाने के बजाय उसे खुर्दबुर्द करने की नीतियां बनाई हैं। सरकार ने पिछले दिनों भूमि कानून में जिस तरह से संशोधन किये हैं वो एकमुश्त जमीनों के बिकने का रास्ता तैयार कर रहे हैं। पहाड़  की जमीनों का बहुत बड़ा हिस्सा लोगों  के हाथ से चला गया है। अभी सरकार ने जिस तरह से तीस साल की लीज पर जमीनों को देने की व्यवस्था की है, उससे तेजी के साथ पैसे वाले लोगों  की जमीनें ले रहे हैं। इस बीच जब सब लोग कोरोना संकट से जूझ रहे हैं, सरकार लोगों  से कह रही है कि उन्हें गांव में ही रोका जायेगा, लेकिन साजिशन वह चुपके से ‘कांटेक्ट फार्मिंग’ के प्रावधान को पास कर अब जमीनों को बड़ी कंपनियों के हवाले करना चाहती है।

ज्यादातर आबादी भूमिहीनों की है

नीति-नियंताओं ने इस बात पर भी विचार  किया होगा और उन आंकड़ों को ध्यान में  रखते हुये भी योजना बनाई होगी जिनके पास जमीनें नहीं  हैं। जमीनों के वितरण का एक आंकड़ा इस बात को समझने के लिये काफी है कि बड़ी संख्या ऐसे लोगों  की है जो लगभग भूमिहीनों की श्रेणी में आते हैं। राज्य बनते समय वर्ष 2000 में राज्य की कुल 831225 हैक्टेयर कृषि भूमि 855980 परिवारों के नाम दर्ज थी। इनमें  5 एकड़ से 10 एकड़, 10 एकड़ से 25 एकड़ और 25 एकड़ से ऊपर की तीन श्रेणियों की जोतों  की संख्या 108863 थी। इन 108863 परिवारों  के नाम 402422 हैक्टेयर भूमि दर्ज थी। यानि राज्य की कुल भूमि का लगभग  आधा भाग। बांकी पांच एकड़ से कम जोतों वाले 747117 परिवारों के नाम 428803 हैक्टेयर भूमि  दर्ज थी। उक्त आंकड़े बताते हैं  कि किस तरह राज्य के लगभग 12 प्रतिशत किसान परिवारों के कब्जे में राज्य  की आधा कृषि भूमि है। बाकी 88 प्रतिशत कृषक आबादी भूमिहीनों की श्रेणी में  है। इनमें एक बड़ा  वर्ग उन हरिजन और भूमिहीनों का है जो इन आंकड़ों से बाहर हैं।

कुछ उदाहरण यहां देखिए

जमीनों के इन जटिल आंकड़ों का सीधा संबंध  राज्य में  पलायन रोकने की नीतियां से जुड़ा है। अगर इस सवाल को सुलटाये बिना कोई लोगों  को पहाड़  में रोकने की बात कर रहे हैं तो वह निश्चित रूप से बहुत सतही सोच रहे हैं। यह आंकड़े इसलिए दिये गये हैं  कि सरकार कृषि, पशुपालन, उद्यानीकरण, होम स्टे, पर्यटन से स्थानीय युवाओं  को रोजगार देने की बात कर रही है। अगर बहुत संक्षिप्त में  इसे समझना हो तो अल्मोडा जनपद के मजखाली क्षेत्र को उदाहरण के रूप में लिया जा सकता है। यहां चौकुनी, मौना, मवाड, गिनाई, डडगलियां, रियूनी, मजखाली, द्वारसों, डीडा, कठपुडिया से लेकर तीन न्याय पंचायतों  की जमीनें बिक चुकी हैं। राज्य के अन्य हिस्सों में सल्ट, मानिला, धूमाकोट, नैनीटांडा, मसूरी, टिहरी, नरेन्द्रनगर, धनोल्टी, लैंसडाउन, भीमताल, रामगढ, मुक्तेश्वर, धारी, वेरीनाग, चकोडी, ग्वालदम, रामनगर के आसपास  से लेकर गंगा का पूरा किनारा और कई क्षेत्र इसी तरह बड़े  बिल्डरों या पूंजीपतियों की गिरफ्त में हैं। दो साल पहले सरकार ने भूमि कानूनों में संशोधन किया है, वह तेजी से जमीनें हमारे हाथ से निकल रही हैं। अभी तक हिमालय दर्शन वाली जमीनें बिक रही थी, अब घाटियां भू-माफिया के निशाने पर हैं। राज्य बनने के बाद सरकार ने जब 2003 में  अपनी उद्योग नीति घोषित  की तो उसमें  तराई और हरिद्वार  में  दो बड़े सिडकुल क्षेत्र  बनाये और बताया गया कि इनमें राज्य के युवाओं को रोजगार दिया जायेगा। इसके लिये पंतनगर विश्वविद्यालय  की 7 हजार एकड़ और संपूर्णानंद खुली जेल को सोना उगलने वाली जमीनें इन उद्योगों को दी गई। इन वर्षों  में  बड़ी  संख्या  में सब्सिडी लेकर उद्योग  यहां  से पलायन  कर गये हैं। युवा फिर सड़क पर है। इनमें वे लोग भी हैं  जिनकी ये जमीनें  थी और वे लोग भी हैं जो भूमिहीन हैं। वे ही महानगरों में छोटी-छोटी नौकरियां कर रहे हैं। वे अपने घर वापस आ रहे हैं। उनका घर से बाहर जाने का फैसला भी अपना नहीं  था और आज आना भी अपना फैसला नहीं  है।

जमीन का प्रबंधन जरूरी
इसलिए पलायन को रोकने के लिये  सबसे पहले जमीन का प्रबंधन बहुत जरूरी है। असल में  उत्तराखंड  की आर्थिकी  का आधार खेती, पशुपालन और जंगल आधारित रही है। इसे बहुत तरीके से मनीआर्डर में  बदलना  ही पलायन का कारण रहा है। नीति-नियंता निश्चित रूप से उनके बारे में  कुछ नया सोच रहे होंगे। हो सकता कुछ व्यक्तिगत प्रयासों से या अपने संसाधनों से कुछ लोगों  ने पहाड़  में  खेती, उद्यानीकरण या कोई  रोजगार स्थापित किया हो, वह माॅडल तो हो सकता है, लेकिन उसे पलायन को रोकने की नीति का हिस्सा मानना  या रिवर्स पलायन का रास्ता मानना बड़ी भूल है। उत्तराखंड में जमीनों का सवाल बहुत ठोस तरीके से उठाया जाना चाहिए। सबसे पहले यहां  सभी पूर्वोत्तर राज्यों और हिमाचल की तरह सख्त भूमि कानून आना चाहिए जो राज्य की खुर्दबुर्द होती जमीनों को बचाये। दूसरे चरण में इस खेती को विकसित करने की नीतियां बननी चाहिए। सरकार द्वारा रक्षित भूमि को जनता के उपयोग के लिये मुक्त रखा जाना चाहिए। जनविरोधी कूजा एक्ट समाप्त किया जाना चाहिए। अनिवार्य चकबंदी लागू की जानी चाहिए। अगर सरकार भू-प्रबंधन के बिना कृषि से रोजगार की बात कर रही है तो वह जनता को धोखे में  रख रही है।

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