20 लाख करोड़ की चमक दिखाते भूख और कोरोना से मरते मीडियाकर्मी

(वरिष्ठ पत्रकार गुणानंद जखमोला की कलम से)

– जी न्यूज दिल्ली का एक मीडियाकर्मी कोरोना पाजिटिव,
53 क्वारंटीन, सीईओ धमका रहा आफिस आओ।
– नवभारत टाइम्स दिल्ली ने मंदी के नाम पर कत्ल कर डाले कई पत्रकार

देश में पिछले चार दिन से बड़ा ड्रामा चल रहा है। वित्त मंत्री सीतारमण का बजट भाषण याद कीजिए, कितनी देर का था। मुश्किल से सवा घंटे का लेकिन मोदी सरकार पिछले चार दिनों से अदृश्य 20 लाख करोड़ रुपये के सुनहरे सपने 135 करोड़ लोगों को बेच रही है। उधर, मजदूर सडकों पर पैदल ही घर जा रहा है और जान गंवा रहा है। सड़क पर प्रवासी मजदूरों के बच्चों की दिल दहलाने वाली तस्वीरें आत्मनिर्भर भारत की सच्ची तस्वीर बता रही हैं, किसान भूखा मर रहा है। मध्यम वर्ग भुखमरी के कगार पर है क्योंकि उसे तो सस्ता राशन और इलाज भी नहीं मिल रहा है। कल्याणकारी देवी बनी हुई हैं निर्मला, ठीक निर्मल बाबा की तरह भूखे, बेबस, बेरोजगार और बदहाल लोगों पर कृपा बरसा रही है।

हां, हम और हमारा मुख्यधारा का मीडिया मोदी को आधुनिक भारत का भगवान बना रहे हैं। जनता ने भगवान श्रीराम से सीता को लेकर सवाल उठाए थे, लेकिन खबरदार, जो किसी ने मोदी सरकार पर सवाल उठाए। विज्ञापन बंद हो जाएंगे, आपदा एक्ट के तहत केस दर्ज हो जाएगा। एनएसए भी लग सकती है। पूरे देश में देख लो, हिसाब लगाओ। मोदी शासन में सबसे अधिक पत्रकारों पर केस दर्ज किये गये और जानलेवा हमले हुए। कई पत्रकार मार भी दिये गये। कहने को मीडिया लोकतंत्र का चैथा स्तम्भ है लेकिन सत्ता रूपी दीमक ने इस खम्भे को खोखला कर दिया है। ये कारपोरेट मीडिया युग है। मीडिया को जीवित रहने के लिए सरकार की मदद चाहिए तो सीधी बात यह है कि सरकार जो कहे, वही सही। हो भी यही रहा है।

लोग मीडिया या मीडियाकर्मियों को बिकाऊ कहते हैं, लेकिन मैं आपको बता दूं कि मालिक और मीडिया घराने बिकते हैं, मीडिया नहीं। मीडिया मजबूर है। यदि दस प्रतिशत पत्रकारों को छोड़ दिया जाए तो 90 प्रतिशत पत्रकार ईमानदार हैं। वो बेबस हैं, लाचार हैं व्यवस्था के बीच। जब मन विद्रोह करता है तो परिवार का ख्याल आ जाता है। करियर की बात सालने लगती है। वो चुप हो जाता है, कुंठित और बेबस।
देखिए मीडिया घराने क्या करते हैं। नवभारत टाइम्स दिल्ली ने एक दर्जन से भी अधिक पत्रकारों को कल से काम पर न आने के लिए कहा है। ये मेरे वो साथी पत्रकार हैं जिन्होंने नवभारत टाइम्स को एनबीटी के रूप में नई पहचान दिलाई। निकाले गये कई पत्रकार मेरे घनिष्ठ मित्र हैं और इन्होंने पिछले 13 साल में एनबीटी को खबरों के मामले में दूसरे अखबारों से कहीं आगे रखा। लेकिन अचानक ही उन्हें निकाल दिया गया। जबकि अन्य की सेलरी पहले ही घटा दी गई है। साथ ही टीवीपी यानी टारगेट वैल्यूवल पे को शून्य कर दिया गया। एनबीटी के सेलरी पैकेज में टीवीपी का एक बड़ा हिस्सा होता है। यानी ये मीडियाकर्मियों का शोषण करने और डराने का तरीका है कि कम वेतन में दोगुणा काम करो। नहीं तो नौकरी छोड़ो। यही स्थिति प्रिंट-इलेक्ट्रानिक या डिजिटल सबमें है।

हमारी बेबसी समझने की कोशिश कीजिए। हम भी इंसान हैं, हमारा भी परिवार है, इच्छाएं हैं और अनेकों सपने हैं, जिनको साकार करने की हसरते दिल में हिलोरें लेती हैं। लेकिन व्यवस्था का क्या? वो लोग जिनको हम खबर बनाते हैं, लेकिन हम स्वयं कभी खबर बनें तो बात बनें। दैनिक जागरण आगरा के डीएनई पंकज कुलश्रेष्ठ की कोरोना से हुई मौत पर कोई बबाल नहीं हुआ। 15 पत्रकार आइसोलेट कर दिये गये लेकिन अखबार फिर भी वहीं से छपा। प्रशासन ने जागरण कार्यालय सील नहीं किया। जागरण में क्या कुछ बदला?

अब जी न्यूज के आउटपुट कर्मी को कोरोना पाजिटिव निकला। 53 लोगों को आइसोलेट किया गया है, लेकिन वहां का सीईओ मीडियाकर्मियों को न सिर्फ आफिस आने के लिए धमका रहा है, बल्कि सारा दोष मीडियाकर्मियो ंपर ही थोप रहा है कि ये तुम्हारी गलती है। इसलिए कोरोना हुआ। यानी जान जोखिम में डालकर काम करो, लेकिन गूंगे बने रहो। उससे भी अधिक खतरनाक है कि मंदी के समय मीडियाकर्मियों को निकाला जा रहा है और सरकार और विपक्षी सब चुप हैं। मुझे आश्चर्य होता है कि दस सेकेंड टीवी में दिखाने या सिंगल काॅलम खबर छपवाने के लिए पत्रकारों के आगे-पीछे घूमने वाले विपक्षी नेता मीडियाकर्मियों को संस्थान द्वारा बाहर का रास्ता दिखाए जाने पर चुप्पी क्यों साध लेते हैं? क्या विपक्ष भी मजबूर होती है? नहीं, उन्हें लगता है कि डीटीसी बस है, एक छूट गई तो दूसरी आ जाएगी। यानी विपक्ष भी कुर्सी को ही सलाम करती है। तो फिर हम पत्रकारों का कौन है? सब हमें भगत सिंह की तर्ज पर काम करने की उम्मीद करते हैं, लेकिन भगत सिंह को आज कौन याद करता है जनाब?

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