(सी एम पपनै की कलम से)
भवाली (नैनीताल)। कोरोना विषाणु संक्रमण वैश्विक महामारी के कारण हुई पूर्णबंदी से देवभूमि उत्तराखंड के लाखों प्रवासी युवा एक त्रासदी के तहत देश के नगरों व महानगरों मे छोटे-मोटे रोजगार से बेदखल कर दिए जाने के बाद, एक बड़ा सबक लेकर अपने घर-गांव लौटने को विवश हुए हैं। घर-गांव वापसी कर रहे इन प्रवासी युवाओं की संख्या को देख, जनमानस के मध्य सवाल भी उठ रहे हैं, कोरोना विषाणु का संकट सतह पर आ जाने के बाद, क्या उसी बेबसी, लाचारी के बीच जाकर उत्तराखंड के ये युवा पुनः प्रवास मे अपनी जिंदगी तलाशेंगे या अपने पुरखों के कठिन परिश्रम से आबाद किए पुश्तैनी खेत-खलिहानों व मकानों को पुनः आबाद कर, प्रदेश मे एक नयी आश व चेतना का संचार कर, प्रदेश की समृद्धि मे हाथ बढ़ायेगे?
पूर्णबंदी के कारण पटरी से उतरी व्यवस्थाओं को वापस पटरी पर लाने के लिए तथा हुए नुकसान को अवसरों मे तब्दील करने हेतु राज्य सरकार के स्तर पर गम्भीरता से सोचे जाने की खबर सुर्खियों मे है। कृषि विकास के लिए कृषि के स्वरूप में बदलाव तथा अर्थव्यवस्था को मजबूती प्रदान करने की चुनोती सरकार के सम्मुख खड़ी है।
लाखों प्रवासी युवा बेरोजगार होकर नगरों व महानगरों से अपने घर-गांवो को लौटे हैं, जिनके सामने विकट समस्या आमदनी का खत्म होना और दूसरी तरफ गांव के ठिए पर पैर जमाने की कोशिश करना मुख्य रूप में उभर कर सामने आ रहा है। घर-गांव लौटे प्रवासी युवा रिवर्स माईग्रैसन की ओर अग्रसर हो, इसके लिए अध्ययन रिपोर्ट तैयार करने के लिए प्रशासन द्वारा पलायन आयोग को निर्देश दिए जाने की भी खबर है। निर्देशो के तहत आयोग प्रवासी मजदूरों से वार्ता कर, उनसे सुझाव प्राप्त करेगा। बेहतर संसाधन एवं सुविधाए उपलब्ध करा कर, उन्हे रोके जाने का भरसक प्रयास भी करेगा।
कयास लगाया जा रहा है, उक्त निर्देशो को जारी करने के पीछे बढ़ते पलायन से पहाड़ी क्षेत्र की जनसंख्या अनुपात का काफी कम हो जाना, शासन-प्रशासन की मुख्य चिंता है। निकट भविष्य में निम्न जनसंख्या अनुपात के कारणवश पर्वतीय क्षेत्र की विधान सभा सीटों के कम होने व मैदानी क्षेत्र की सीटों के बढ़ने की आशंका का पैदा होना मुख्य कारण आंका जा रहा है। मैदानी विधान सभा सीटों के बढ़ जाने से पर्वतीय राज्य की कल्पना को निः संदेह बड़ा आघात लगेगा।
अवलोकन कर ज्ञात हो रहा है, सरकार के सामने रिवर्स पलायन के साथ-साथ जो प्रमुख बड़ी चुनोतिया हैं, उनमे कोरोना संक्रमण को फैलने से रोकने की तथा किसी को भूख और बदहाली से न मरने देने की चुनोती मुख्य हैं। जिस तादात मे प्रवासी युवा अपने घर-गांव पहुच रहे हैं, उनसे गांवो मे संक्रमण फैलने का खतरा भी निःसंदेह बढ़ गया है, पर देश के विभिन्न नगरों व महानगरों मे उत्तराखंड के प्रवासी युवाओं को बदहाली की हालत मे कब तक नजरअंदाज कर रखा जाता, डबल इंजन की सरकार के आगे बहुत बड़ी चुनोती बन कर खड़ी हो गई थी, जिसे चाहे मानवीय कहे या राजनैतिक।
सर्वविदित रहा है, पलायन वहा बढ़ा, जहां मानव जीवन के लिए सामाजिक तथा आर्थिक परिस्थितिया अनुकूल नहीं रही हैं। जीवन निर्वाह साधनों की कमी व रोजगार के अवसरो की अनुपलब्धता रही है। उत्तराखंड इन अभावो से अछूता नहीं रहा है। इन्ही अभावो के परिणाम स्वरूप उभरे पलायन से गांव के गांव खाली होकर, भूतिया गांव कहलाए जाने लगे, जिनकी संख्या आज सैंकड़ो मे है।
पलायन उत्तराखंड के पहाड़ो की मुख्य समस्या हो गई है। विरान होते गांव, खंडहर होते मकान, पहाड़ो की दुर्दशा का बखान करते हैं। मूलभूत सुविधाओं के अभावो, सड़क, बिजली, पानी, स्वास्थ्य, शिक्षा, युवाओं के लिए रोजगार न होना, पलायन के मुख्य कारण रहे हैं। बढ़ते पलायन से सीमांत के गांव खाली होने से देश की सुरक्षा की समस्या महसूस की गई, जो देश के सम्मुख बड़ी चुनौती बन कर उभरी है।
उत्तराखंड से लगी 250 किलोमीटर नेपाल सीमा तथा लगभग 325 किलोमीटर खुली चीन की सीमा से जुडी हुई है। सामरिक दृष्टि से उत्तराखंड का सीमांत क्षेत्र संवेदनशील है। देश की सीमाओं को सुरक्षित रखने में उत्तराखंड के सीमान्त गांवो मे निवासरत ग्रामीणों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। दुर्भाग्य, अब ये सीमांत के गांव धीरे-धीरे पलायन की बाट जोह रहे हैं।
अवलोकन कर ज्ञात होता है, उत्तराखंड प्राकृतिक संसाधनों की दृष्टि से सम्पन्न प्रदेश है। साथ ही, आध्यात्म की राजधानी है। संस्कृति का प्राण क्षेत्र है। वेद पुराण व उपनिषदों तथा शाश्वत चिकित्सा की जन्मस्थली है। स्मृद्ध हिमालय के शांत, सौंदर्ययुक्त व रमणीक पर्वतीय भू-भाग है, जहां उसकी रक्षा व स्मृद्धि के लिए 12500 वन पंचायते हैं। इसके बावजूद स्थानीय ग्रामीणों का दुर्भाग्य रहा है, उनको वनों का हक-हकूक नही मिलता। यहां तक कि वे अपने खेतो मे खड़े पेड़ो को तक नही काट सकते। शासन-प्रशासन द्वारा वन अधिनियम 1980 इतना कड़ा लाया गया, जिसने ग्रामीण समाज को लगातार उद्धलित ही किया है। ग्रामीणों के हक-हकूको के प्रति प्रशासन की सोच स्थानीय पारिस्थितिकी के विरुद्ध बनी है।
9 नवंबर, सन 2000 को उत्तराखंड देश के 27वे प्रदेश के रूप में अस्तित्व में आ गया था। राज्य सृजन का मुख्य उद्देश्य इस क्षेत्र के तीव्र आर्थिक विकास को सुनिश्चित करना था। जिस बल प्रदेश के लोगों को रोजगार मिलना था। ग्रामीणों के जीवन में आमूल परिवर्तन लाकर उन्हे समृद्धि की राह प्रदान होनी थी। हुआ उल्टा, स्थापित सरकारो की नीतियों से ग्रामीणों मे रोष बढ़, पलायन को बल मिला। राजनीति का ऐसा हास हुआ, प्रदेश का प्रत्येक चुना गया विधायक मुख्य मंत्री बनने की लालशा बांधे खड़ा हो गया। राज्य गठन के अल्प बीस वर्षों मे ही अदलती-बदलती सरकारों के 9 मुख्यमंत्री सत्तारूढ़ हो गए।
प्रदेश का शासन केंद्र के दिशानिर्देशो के द्वारा चलायमान रहा। गुजरे दो दशकों मे कोई भी स्थापित सरकार यह नही बता पाई है कि पलायन कैसे रुकेगा। स्थानीय रोजगार कैसे बढ़ेगा। यहां तक कि स्थापित पक्ष-विपक्ष की आती-जाती सरकारों को यह तक पता नही चल पाया कि उत्तराखंड की अपनी खूबियां क्या-क्या हैं, जिस बल प्रदेश के युवाओं को रोजगार उपलब्ध करा, पलायन पर लगाम लगाई जा सके। पर्यटकों व श्रद्धालुओ को आकर्षित कर प्रदेश की आर्थिकी मजबूत की जा सके। संसाधनों का समुचित उपयोग कर प्रदेश की आर्थिक स्थिति मे इजाफा किया जा सके।
औद्योगिक क्षेत्र की अनुपस्थिति एवं कृषि क्षेत्र मे जटिल परिश्रम व गरीबी के कारण अत्यधिक पिछड़े होने से पर्वतीय क्षेत्र से पढ़े-लिखे युवक जीविकोपार्जन, उच्च जीवन की लालसा तथा आर्थिक समृद्धि हेतु नगरों व महानगरों को लगातार पलायन करने को बाध्य होते चले गए।
सर्वविदित रहा है, पर्वतीय क्षेत्र मे कृषि मुख्य व्यवसाय रहा है। उसमे आयी अनेक खामियों, विकृतियो, परिवारों के विभक्त होने से जोतों के छोटे होते चले जाने, चकबंदी न होने, आधुनिक तकनीकी ज्ञान के अभाव, मौसम की मार, बंदरो, लंगूरों, सुअरो इत्यादि के द्वारा फसलों, साग सब्जियों, फलों इत्यादि का बेतहाशा समूल नाश करना, यहां तक कि ग्रामीणों को काटना, घायल करना इत्यादि अनेकों कारणों के साथ-साथ सरकार की मौन उदासीनता व स्वार्थपरक नीतियों से ग्रामीणों के लिए खेती-किसानी के बल जीवनयापन संभव नहीं रह गया था।
जैविक खेती उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्र की सदा बहार कृषि पद्धति रही है। जो पर्यावरण के संतुलन, जल और वायु की शुद्धता, भूमि के प्राकृतिक रूप को बनाए रखने में सहयोगी, जल धारण क्षमता बनाऐ रखने मे सक्षम रही है। कम लागत से लंबे समय तक बेहतर उत्पादन देने मे समर्थ बनी रही है। दुर्भाग्य रहा, सदा बहार इस कृषि पद्धति को परंपरागत ज्ञान का ठप्पा लगने से इसे आधुनिक कृषि पद्धतिदाताओं द्वारा पिछड़े पन का संकेत माना गया। जिसके कारण परंपरागत कृषि पद्धति व खाद्य बीजो का लोप हुआ। कृषि एवं औद्योगिक क्षेत्र मे उभरे हास एवं सेवाक्षेत्र मे भी पर्याप्त विस्तार न होने से पलायन को भारी बल मिलता चला गया। नतीजन गांव के गांव खाली होते चले गए।
उत्तराखंड के प्रबुद्ध जन विदित हैं, दुनियाभर में पर्यटन को आय के महत्वपूर्ण श्रोत के तौर पर देखा जा रहा है। कई देशों की तो अर्थव्यवस्था ही पर्यटन के भरोसे है। उत्तराखंड ऐसे क्रिया-कलापो से जुदा रहा है। दुनिया के चार धाम बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री, यमनोत्री के साथ-साथ हेमकुंड साहब, रीठा साहिब धार्मिक श्रद्धालुओ के लिए विशेष स्थान रखते हैं। करोड़ो श्रद्धालु व पर्यटक गंगा को स्पर्श करने हरिद्वार आते हैं। नैनीताल, मंसूरी, रानीखेत, कौसानी इत्यादि रमणीक पर्यटन स्थल सैलानियों को आकर्षित करते हैं। उत्तराखंड मे ताल हैं, बुग्याल हैं। फूलों की घाटी मे धरती का बेसुमार सौन्दर्य फैला हुआ है। 165 वर्ग किलोमीटर मे फैली टिहरी झील का आकर्षण है। इतने स्मृद्ध प्राकृतिक सौंदर्य व पर्यटन स्थलों के बाद भी प्रदेश की पर्यटन व पर्यटन से जुडी रोजगार की नीति देश-प्रदेश की आर्थिक समृद्धि व उन्नति मे कितनी कारगर बनी हुई है, धरातल पर द्रष्टिगत है।
अचरज होता है, यह जानकर कि, श्रद्धालुओ और पर्यटको की साल दर साल बढ़ती लाखों की संख्या को उत्तराखंड शासन-प्रशासन द्वारा परेशानी का सवब बताना शुरू कर दिया गया है। पर्यटकों व श्रद्धालुओ के पहुचने से कूड़ा-करकट व प्रदूषण ज्यादा फैलने की बात की जा रही है। प्रकृति के सौंदर्य व लोगों की आस्था को अर्थव्यवस्था की मजबूती के रूप मे न आंक कर बढ़ती समस्या के रूप में देखा जा रहा है। पहाड़ो पर निर्माण और विकास कार्यो की सार्थकता और आवश्यकता पर पर्यावरणविदो व भू-गर्व विज्ञानियों के बीच बहस होते रहना एक नियति सी बन गई है, यह भूल कर कि, जापान मे भूकंप तथा अमेरिका सहित अनेक देशो मे भयंकर चक्रवात व तूफान आते रहते हैं। इन देशों ने ऐसे तंत्र विकसित किए हैं, जिससे नुकसान को न्यूनतम किया जा सके। उक्त तकनीक व पद्धति उत्तराखंड के त्वरित विकास व रोजगार की बढोत्तरी हेतु क्यों नहीं अजमाई जा सकती, प्रश्न भुक्तभोगी प्रबुद्ध जनमानस के मध्य खड़ा है।
कोरोना विषाणु संक्रमण की इस भयावह स्थिति में प्रवासी युवाओं की घर-गांव वापसी को रिवर्स पलायन मान रही उत्तराखंड सरकार को यह बताना चाहिए, कि रिवर्स पलायन कैसे रुकेगा? स्थानीय रोजगार कैसे बढ़ेगा? और रोजगार मूलक विकास में राहत पैकेज का उपयोग कैसे होगा? इस सब पर प्रदेश व जनमानस के हित में ईमानदार, बौद्धिक और सार्थक बहस का होना जरूरी है। क्योंकि इस महामारी संकट की घड़ी में, व्यवस्था मे आलोचना की गुंजाइश नही होनी चाहिये। अगर निर्णय का सम्बन्ध हो तो, उस पर निःसंदेह बहस होनी ही चाहिए। खास परिस्थितियों में नियमो को बनाते और उनमे संशोधन करते समय व्यवहारिक पक्षो की अनदेखी, दूरदर्शिता का अभाव और पेचैदगिया कई बार किस तरह से लोगों को गंभीर संकट में डाल देती हैं, इसका आभाश वर्तमान प्रदेश नेतृत्व को होना चाहिए।