उत्तराखंड के ग्लेशियरों के सामने बनीं 40 झीलों की स्थिति बेहद खतरनाक

उत्तराखंड में 968 ग्लेशियर हैं और इनमें करीब 1253 झीलें बनी हैं। इनमें से करीब 40 झीलों की स्थिति बेहद खतरनाक है। यह झीलें ग्लेशियर के सामने बनी हैं, जिन्हें मोरेन डैम लेक कहा जाता है। इनके फटने की प्रबल संभावना होती है। खतरनाक स्थिति वाली झीलों का आकलन वाडिया हिमालय भूविज्ञान संस्थान के पूर्व विज्ञानी डॉ. डीपी डोभाल के अध्ययन में किया गया है।

गंभीर स्थिति वाली झीलों की हालत सितंबर 2019 में सिंचाई मंत्री सतपाल महाराज की समीक्षा बैठक में स्पष्ट की गई थी। इसी बैठक में ग्लेशियरों व ग्लेशियर झीलों के हिसाब से ही जलविद्युत परियोजनाओं को विकसित करने का निर्णय लिया गया था। यह बात और है कि कवायद बैठक से आगे नहीं बढ़ पाई। इस बैठक में सिर्फ अच्छी बात यह दिखी कि 72 मेगावाट की त्यूणी-प्लासू परियोजना में एनआइएच (राष्ट्रीय जलविज्ञान संस्थान) से अध्ययन कराया गया था और फिर परियोजना के डिजाइन में भी आवश्यक बदलाव कर दिया गया था।

हालांकि, अधिकतर परियोजनाओं में जल प्रवाह के अलावा ग्लेशियोलॉजी के अनुरूप अध्ययन नहीं कराया जाता। यही कारण है कि इस तरह की आपदाओं के आगे हमारी तैयारी स्तरीय नजर नहीं आती। उत्तराखंड अंतरिक्ष उपयोग केंद्र (यूसैक) के निदेशक डॉ. एमपीएस बिष्ट का भी कहना है कि बिजली परियोजनाओं या किसी अन्य बड़ी परियोजना के निर्माण से पहले वहां के ग्लेशियरों, ग्लेशियर झीलों, एवलांच आदि को लेकर भी अध्ययन कराना जरूरी है। खासकर उत्तराखंड जैसे हिमालयी प्रदेश में इस तरह की व्यवस्था अनिवार्य रूप में लागू की जानी चाहिए। यूसैक व वाडिया संस्थान के ही विभिन्न अध्ययनों में यह स्पष्ट कर दिया गया है कि गंगोत्री व केदारनाथ क्षेत्र में भी ग्लेशियरों से निकलने वाला खतरा बरकरार है।

गोमुख में मलबे का 30 मीटर ऊंचा ढेर

गंगोत्री ग्लेशियर के मुहाने पर गोमुख में वर्ष 2017 में ग्लेशियर मलबे का करीब 30 मीटर ऊंचा ढेर बन गया था। इसके चलते वहां एक झील का निर्माण हो गया था। गनीमत रही कि अब झील नहीं है, मगर मलबे की स्थिति वही है। यहां तीन किलोमीटर की लंबाई में मलबा (डेबरी) पड़ा है और इसमें बड़े बोल्डर भी शामिल हैं। जिसके चलते दोबारा झील बन सकती है और वह कभी भी टूट सकती है। इस मामले में उत्तराखंड हाईकोर्ट गहरी नाराजगी भी जता चुका है। क्योंकि इस मामले में उचित ढंग से मामले की निगरानी नहीं की गई।

केदारनाथ के नए मार्ग पर सात बड़े एवलांच जोन

केदारनाथ आपदा के बाद जो नया मार्ग बनाया गया है, वह भी खतरे की जद में है। उत्तराखंड अंतरिक्ष उपयोग केंद्र की मानें तो इस मार्ग पर सात बड़े एवलांच (हिमस्खल) जोन हैं। यहां जब-तब एवलांच आते रहते हैं। यही नहीं, केदारनाथ क्षेत्र में अभी भी 160 मीटर ऊंचाई का मलबा डंप है। एवलांच आने, झील फटने या अतिवृष्टि के चलते यह मलबा कभी भी पूरे वेग के साथ निचले क्षेत्रों में तबाही ला सकता है। लिहाजा, इस तरफ भी ध्यान देना जरूरी है।

वाडिया हिमालय भूविज्ञान संस्थान के वरिष्ठ विज्ञानी  डॉ. पीएस नेगी के मुताबिक भूकंप, अतिवृष्टि, भूस्खलन, हिमस्खलन, ग्लेशियर झीलों के फटने, बादल फटने आदि की घटनाओं को रोका नहीं जा सकता। मगर, उत्तराखंड जैसे संवेदनशील क्षेत्रों में बचाव के उपाय जरूर किए जा सकते हैं। पर्वतीय क्षेत्रों में जिन भी परियोजनाओं का निर्माण किया जाए, उनमें विज्ञनियों की संस्तुतियों पर पूरा अमल जरूरी है। एवलांच जोन में परियोजनाएं न बनाई जाएं और पहाड़ों का कटान पहले से निर्धारित तकनीकों के आधार पर किया जाए। ग्लेशियरों पर अध्ययन बढ़ाने की भी जरूरत है और प्राकृतिक संसाधनों का नियंत्रित दोहन किया जाए।

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